Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थकर चरित्र
महाराज ने देवी की भेंट स्वीकार की और उसका सत्कार कर के बिदा की तथा विजयोत्सव मनाया।
इसके बाद वैताढ्य पर्वत के पास आये और वैताढ्यादि कुमार देव को अधीन करने के लिए तेले का तप किया। उसे अपने आधीन बना कर तिमिस्रा गुफा की ओर गये और गुफा के अधिष्ठायक कृतमाल देव का आराधन किया । देव, महाराजाधिराज भरत की सेवा में उपस्थित हुआ और उत्तम भेट धर कर अधीनता स्वीकार की । फिर सिन्धु नदी के दक्षिण की ओर के सिंहल, बर्बर, यवन द्वीप के लोगों को वश में करने के लिए सेनापति को भेजा । सेनापति ने उन्हें जीत कर चक्रवर्ती महाराजा के आज्ञाधीन बनाये। इसके बाद सेनापति तिमिस्रा गुफा के निकट आया और उसके द्वार को प्रणाम किया, फिर दंड से किंवाड़ पर तीन बार प्रहार किया। इससे गुफा के द्वार खुल गये । किंवाड़ खुलते ही महाराजा की सवारी सेना सहित गुफा में चली । उस विशाल गुफा में घोर अन्धकार था। मणि-रत्न की सूर्य के समान प्रभा से समस्त अन्धकार नाश हो कर प्रकाश फैल गया । गुफा में दो नदियाँ बह रही थी। एक नदी उन्मग्ना थी, जिसमें पड़ा हुआ भारी पत्थर भी नहीं डूबता था । नदी की तेज धारा उसे घुमा कर बाहर फेक देती थी। दूसरी निमग्ना नदी में पड़ा हुआ पत्ता और तिनका जैसी हलकी वस्तु भी डूब जाती थी। वाद्धिक-रत्न ने उन नदियों पर तत्काल सुदृढ़ पुल बाँध दिया । इस पुल पर हो कर चक्रवर्ती की सेना उत्तर खण्ड में पहुँची। उधर शक्तिशाली एवं प्रतापी भिल्ल और किरात आदि रहते थे। वे दानवों के समान दुर्दम्य एवं युद्ध-प्रिय थे। चक्रवर्ती महाराजा की चढ़ाई देख कर वे क्रोधित हुए । युद्ध भड़क उठा । चक्रवर्ती महाराजा की सेना के अग्रभाग के सैनिक, शत्रुसेना के पराक्रम के आगे ठहर नहीं सके और रण छोड़ कर भाग खड़े हुए। यह स्थिति देख कर सेनापति सुषेण कुपित हुआ। उसने अपना घोड़ा आगे किया और शत्रुओं का संहार करने लगा । सेनापति का उत्कृष्ट पराक्रम देख कर किरातों की सेना भाग गई । किरात योद्धा भयभीत हुए। उन्होंने सिन्धु नदी के किनारे रेती में लेट कर अपने इष्ट देव मेघमाली को अनशन पूर्वक स्मरण किया । देव ने आ कर कहा--"भरत-क्षेत्र के आदि चक्रवर्ती भरतेश्वर, खण्ड साधने को निकले हैं । इनकी आज्ञा मान लेने में ही लाभ है। फिर भी मैं तुम्हारे लिए चक्रवर्ती को उपसर्ग करता हूँ।" ऐसा कह कर मेघमाली देव ने घनघोर वर्षा प्रारम्भ कर दी । लगातार सात दिन-रात तक मूसलाधार वर्षा होती रही। चारों ओर पानी ही पानी हो गया । चक्रवर्ती महाराजा की सेना, चर्म-रत्न और छत्र-रत्न के साधन से सुरक्षित
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