Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भ• ऋषभदेवजी--दीक्षा
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भगवान् पाँचवीं मुष्टि से शिखा का लुंचन करने लगे, तब इन्द्र ने निवेदन किया--"हे स्वामी ! अब इतने केश तो रहने दीजिए, क्योंकि जब ये केश हवा से उड़ कर आपके कन्धे पर आते हैं, तब मर्कत मणि के समान शोभित होते हैं।" प्रभु ने इन्द्र की प्रार्थना स्वीकार कर ली। इन्द्र ने भगवान् द्वारा लुंचित केशों को क्षीर समुद्र में प्रवेश कराया।
अब इन्द्र की आज्ञा से वादिन्त्र बजाना रोक दिया गया । फिर बेले के तप से युक्त ऐसे श्री नाभिकुमार ने देवों और मनुष्यों के समक्ष, सिद्ध को नमस्कार कर के इस प्रकार उच्चारण किया--
" में सभी पापकारी प्रवृति का त्याग करता हूँ।"
इस प्रकार उच्चारण कर के चारित्र ग्रहण किया। जिस प्रकार शरद ऋतु की तेज धूप से तपे हुए मनुष्य को बादल की छाया आ जाने से शांति मिलती है, उसी प्रकार प्रभु के मोक्षमार्ग पर. आरूढ़ होते ही नारकी के जीवों को भी क्षणभर के लिए गांति मिली । भगवान् को संयमरूपी धर्म-रथ पर आरूढ़ होते ही मनःपर्यव ज्ञान उत्पन्न हो गया। प्रभु के साथ चार हजार राजा भी दीक्षित हो गए। इसके बाद इन्द्र और अन्य देवी-देवता भगवान् को वन्दन-नमस्कार कर के अपने-अपने स्थान पर चले गए और नन्दीश्वर द्वीप पर अठाई महोत्सव किया । भरत-बाहुबली आदि परिवार भी शोक-संतप्त होते हुए बड़ी कठिनाई से स्वस्थान आये ।
प्रवजित होने के बाद इस अवसर्पिणी काल के आदि महामुनि श्री ऋषभदेवजी ने मौन धारण कर के अपने 'कच्छ,' 'महाकच्छ' आदि मुनियों के साथ विहार किया । बेले के पारणे के दिन प्रभु को किसी भी स्थान से भिक्षा नहीं मिली । उस समय लोग भिक्षादान करना जानते ही नहीं थे। उस समय उस क्षेत्र में कोई भिक्षु नहीं था। प्रभ ही आदिभिक्षुक हुए, तब लोग भिक्षा देना क्या जाने ? और प्रभु तो मौन ही रहते थे । जब प्रभ भिक्षा के लिए किसी के यहाँ जाते, तो वह यही समझता कि ' हमारे महाराजाधिराज हमारे घर आये हैं।' भगवान् ने मौनपूर्वक विचरने की प्रतिज्ञा कर ली थी। जब भगवान भिक्षार्थ जाते, तो लोग उत्तम घोड़े, हाथी और अनिन्द्य सुन्दर कन्याएँ ले कर उपस्थित होते. कोई हीरे-मोती और बहुमूल्य आभूषण ले कर अर्पण करने आता, कोई विविध वर्ण के बहुमूल्य वस्त्र ले कर अर्पण करने आता । इस प्रकार बहुमूल्य भेंट ले कर लोग आते. किन्तु भोजन-पानी देने का कोई नहीं कहता। प्रभु उन सभी भेंटों को अग्राह्य होने के कारण स्वीकार नहीं करते और लौट जाते । उनका अनुकरण करने वाले स्वयं दीक्षित
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