Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र
राजागण भी लौट जाते ।
साधुओं का पतन और तापस-परम्परा
- इस प्रकार निराहार रहते कई दिन बीत गए, तब क्षुधा आदि परीषहों से दुःखी हुए और तत्त्वज्ञान से अनभिज्ञ साधु, आपस में विचार करने लगे-"हमसे अब यह दुःख सहन नहीं होता । भगवान् तो कुछ बोलते ही नहीं। अब हम क्या करें ?'' उन्होंने कच्छमहाकच्छ मुनि से पूछा । उन्होंने भी कहा--" भगवान् के मन की बात हम भी नहीं जानते। किन्तु अब घर चलना भी अनुचित है, क्योंकि हमने अपना राज्य तो भरतजी को दे दिया
और साधु बन कर निकल गये । अब पीछा लौटना उचित नहीं है। इससे अच्छा यही है कि किसी ऐसे वन में हम रुक जायँ कि जिसमें अच्छे-अच्छे फल हों और पीने के लिए पानी भी मिल सके।" इस प्रकार विचार कर के वे गंगा नदी के निकट रहे हुए वन में गये और इच्छानुसार कंद-मूल-फलादि का आहार करने लगे और वल्कल से तन ढाँकने लगे। तभी से कंदमूलादि का आहार करने वाले जटाधारी तापमों की परम्परा चली।
विद्याधर राज्य की स्थापना
कच्छ और महाकच्छ राजा के नमि और विनमि पुत्र थे। वे प्रभु की दीक्षा के पूर्व ही कार्यवश विदेश चले गये। जब वे लौट कर आये, तो उनके पिता उन्होंने बन में तापस के रूप में मिले । उन्होंने पूछा--"आपकी यह दशा क्यों हुई ?' उन्होंने अपनी प्रव्रज्या की बात कही। जब नमि-विनमि को मालूम हुआ कि उनकी राजधानी नहीं रही, तो वे खोज करते हुए भगवान् ऋषभदेव के पास आये । भगवान् ध्यान युक्त खड़े थे। उन्होंने निवेदन किया--" आपने अपने पुत्रों को तो राज्य दे दिया, लेकिन हम तो यों ही रह गए। अब हमें भी कही का राज्य दीजिए।" भगवान् ने कोई उत्तर नहीं दिया, तो उन्होंने सोचा--" हम इन्हीं की सेवा करेंगे । इन्हें छोड़ कर महाराज भरत या और किसी के पास क्यों जावें ? जिन्होंने भरत को राज्य दिया, वे हमको भी देंगे।" इस प्रकार सोच कर वे दोनों भगवान् के साथ रह गए । भगवान् जहाँ पधारते, वहाँ ये भी पीछे-पीछे जाते और जहां ठहरते, वहाँ ये भी ठहर कर आस-पास के स्थान की सफाई करते, उसे स्वच्छ बनाते
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