Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भ० ऋषभदेव जी--विद्याधर राज्य की स्थापना
और सुगंधित पुष्प बिखेरते । फिर हाथ में तलवार ले कर दोनों ओर अंग-रक्षक के समान खड़े रह कर पहरा देते। वे प्रतिदिन त्रिकाल वन्दना कर के निवेदन करते-" हमें आप ही राज्य दीजिए । हम आपको छोड कर अन्यत्र नहीं जावेंगे।" कालान्तर में नागकुमार की जाति के देवों का धरणेन्द्र, भगवान् के दर्शन करने आया। उसने नमि-विनमि को भक्ति करते हुए और राज्यश्री की याचना करते हुए देख कर पूछा--"अरे भाई ! तुम कौन हो और भगवान् से क्या माँगते हो ? देखते नहीं, ये तो निग्रंथ हैं ।" उन्होंने कहा--
"ये हमारे स्वामी हैं । हम विदेश गये, पीछे से आपने अपने पुत्रों को राज दे दिया और साध बन गए और हम यों ही रह गए । अब हम इनसे राज्य की याचना करते हैं।"
धरणेन्द्र ने कहा--"अब तो ये साधु हैं। इनके पास कुछ भी नहीं बचा । तुम भरत महाराज के पास जाओ । वे तुम्हारी माँग पूरी करेंगे।"
--" नहीं भाई ! हम तो इनसे ही लेंगे। भरत के पास जावें और वे कह दे कि 'मुझे तो पिताजी ने दिया और तुम्हारे पिता ने अपनी इच्छा से छोड़ा, तो फिर हम क्या करें ? हम तो इन्हीं से राज्य लेंगे । ऐसे समर्थ स्वामी को छोड़ कर दूसरे के सामने हाथ पसारने कौन जावे।"
---"अरे भाई ! तुम समझते क्यों नहीं ? जब इनके पास कुछ भी नहीं है, तो तुम्हें क्या देंगे"- धरणेन्द्र ने पुनः समझाया।
--"महाशय ! आप अपना काम करिये । हम यहाँ से टलने वाले नहीं है" -नमि-विनमि ने कहा ।
नागेन्द्र इनके भोलेपन पर प्रसन्न हो गया। उसने कहा
" मैं भवनपति देव की नाग जाति का इन्द्र और इन महापुरुष का सेवक हैं। तुम्हारी प्रभु-भक्ति देख कर मैं प्रसन्न हूँ। तुम भाग्यशाली हो । मैं तुम्हें तुम्हारी प्रभु-भक्ति के फलस्वरूप विद्याधरों का ऐश्वर्य प्रदान करता हूँ।" धरणेन्द्र ने नमि-विनमि को ‘गौरी,' विज्ञप्ति' आदि अड़तालीस हजार विद्याएँ दी और कहा कि " तुम वैताढ्य पर्वत पर जा कर दोनों श्रेणी में नगर बसा कर राज्य करो।" नमि-विनमि ने विद्या के बल पर पुष्पक नाम का विमान तय्यार किया और धरणेन्द्र के साथ विमान में बैठ कर अपने पिता कच्छ-महाकच्छ के पास आये। उन्हें अपनी सफलता सुनाई । फिर भरत महारान के पास आ कर उन्हें भी निवेदन किया और स्वजनादि को साथ ले, विमान में बैठ
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