Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थङ्कर चरित्र
अच्युतेन्द्र से स्नान विलेपनादि करवाने के बाद प्रभु को वन्दन नमस्कार किया और स्तुति करते हुए बोले ;
" हे जगन्नाथ ! हे धर्म-प्रवर्तक ! हे कृपात्र ! सिद्धिदाता ! आपकी जय हो, विजय हो, आप आनन्द करें ।"
अच्युतेन्द्र की ओर से जन्माभिषेक हो जाने के बाद अन्य ६२ इन्द्रों ने भी यथाक्रम जन्माभिषेक किया । उसके बाद ईशानेन्द्र ने अपने पाँच रूप बनाये । उसमें से एक रूप, भगवान् को गोदी में ले कर बैठा । एक रूप ने छत्र धारण किया। दो रूपों ने दोनों ओर
वर धारण किये और एक रूप त्रिशूल धारण कर के खड़ा रहा। इसके बाद सौधर्मेन्द्र ने भगवान् के चारों दिशा में चार वृपभ रूप बनाये। उनके प्रत्येक के दोनों ऊँचे सिंगों से, ऊँची जलधाराएँ (फव्वारे के समान ) निकलने लगी । वे धाराएँ आकाश में एक साथ मिल कर प्रभु के मस्तक पर गिरने लगी । इस प्रकार स्नान करवाने के बाद देवदुष्य वस्त्र से शरीर पोंछा । चन्दन का विलेपन कराने के बाद दिव्य वस्त्र पहिनाये, मुकुट धारण कराया, स्वर्ण कुण्डल पहनाये, मुक्तामाला पहिनाई। इस प्रकार और भी आभूषण पहिना कर वन्दन-नमस्कार और स्तुति की और इसके बाद शकेन्द्र ने पूर्व के समान अपने पाँच रूप बना कर भगवान् को ईशानेन्द्र के पास से अपनी गोदी में लिये और अन्य रूप छत्र, चामर और वज्र ले कर, आकाश मार्ग से चल कर जन्म-स्थान पर आये और भगवान् के प्रति - बिम्ब को हटा कर भगवान् को मातेश्वरी के पास सुलाये, फिर माता की निद्रा दूर की । शक्रेन्द्र ने भगवान् के सिरहाने वस्त्र - युगल और कुण्डलादि आभूषण रखे और प्रभु की दृष्टि में आवे, इस प्रकार छत में एक स्वर्ण और रत्नमय ' श्रीदामगंड' (गेंद) लटकाया, जो रत्नों की लटकती हुई मालाओं से सुशोभित था ।
रीति के अनुसार विशिष्ट प्रकार के द्रव्यों और साधनों से यह सारी क्रिया सम्पन्न होती है । यह मनुष्य भव में होने वाले महान् अभ्युदय की निशानी है कि जिसका जन्मोत्सव संसार का सर्वोच्च व्यक्ति-अच्युतेन्द्र करता है । विश्व का महान् इन्द्र, जिस नवजात मनुष्य बालक की अनुचर के समान सेवा करे, उस बालक के पुण्य के उत्कृष्ट भण्डार का तो कहना ही क्या ?
श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य ने उपरोक्त स्तुति 'चारणमुनियों ने की ' ऐसा लिखा है। किन्तु यह बात समझ में नहीं आती। उस ममय भरत ऐरवत में चारण मुनि तो क्या, पर साधारण मुनि होने की सम्भावना भी नहीं है | यदि महाविदेह के आवें, तो वहाँ तो साक्षात् भाव- तीर्थंकर बिराजमान होते हैं । उन्हें छोड़ कर यहाँ जन्मोत्सव जैसी सांसारिक---आरम्भयुक्त - - सावद्य क्रिया में शरीक होने के लिए चारण मुनि आवें, यह कैसे मानने में आवे ? वह तो मुनि-मर्यादा का भंग ही है । वह उस्लेख अवास्तविक है |
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