Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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चंश स्थापना
जय श्री ऋषभ कुमार एक वर्ष के हुए तब सौ धर्मेन्द्र, कर्मभूमि के आदि महामानव के वंश की स्थापना करने के लिए भारत भूमि पर आये । खाली हाथ प्रभु के सम्मुख नहीं आने की दृष्टि से वे एक इक्षु-यष्टि (गन्ना) साथ लेते आये । उस समय भगवान् अपने पिता श्री नाभि राजा की गोद में बैठे थे । इन्द्र को देखते ही प्रभु ने अपने अवधिज्ञान से इन्द्र के मनोगत भाव जान लिये और इन्द्र के हाथ से इक्षु-दण्ड लेने के लिए हाथ लम्बा किया । इन्द्र ने प्रणाम कर के वह गन्ना प्रभु को सादर समर्पित कर दिया । इक्षु ग्रहण करने के कारण इन्द्र ने भगवान् का ‘इक्ष्वाकु' नाम का वंश स्थापन किया ।
जन्म से चार अतिशय
भगवान आदिनाथजी का शरीर, जन्म से ही-~-१ स्वेद (पसीना) मल और रोग से रहित और सुन्दराकार था । स्वर्ण-कमल के समान शोभनीय था, २ उनका रक्त और मांस, गाय के दूध के समान उज्ज्वल एवं सुगन्ध युक्त था, ३ उनका आहार-नीहार चर्मचक्षु के लिए अगोचर था और ४ उनके श्वास की सुगन्ध, सुविकसित कमल की मुगन्ध के समान थी । ये चार अतिशय उनके जन्म के साथ ही थे।
प्रभु का शरीर वज्र-ऋषभ-नाराच संहनन' (शरीर की सर्वोत्तम रचना, जिससे हड्डियों का जोड़ और पट्ट वज्र मेख से सुदृढ़ हो जाता है) और समचतुरस्र संस्थान युक्त था। वे मंद गति से चलते थे । वय से बालक होते हए भी गम्भीर और मधर वचन बोल कई देव, भगवान् के साथ खेलने के लिए अपना बालक रूप बना कर आते थे, तो उनके साथ, उनकी इच्छापूर्ति के लिए प्रभु खेलते थे। यदि कोई देव, प्रभु के बल की परीक्षा करने के लिए आता, तो वह तत्काल पराभव पा जाता। कई देवकुमार, भगवान् को प्रसन्न करने के लिए मयूर बन कर कोकारव करते और नृत्य दिखाते । कई पोपट, मैना, कोयल, हंस आदि बन कर अपनी मधुर बोली और मोहक रूप से मनरंजन करते । कोई सुन्दर अश्व,
सांसारिक अवस्था में थे। अतएव जन्मोत्सवादि क्रिया में धर्म मानने की भूल नहीं करनी चाहिए । इन्द्रों ने भावी जिनेश्वर-जिनसे भविष्य में धर्म-प्रवर्तन की महान आशा है-जान कर उनके द्वारा संसार के भव्य जीवों का उद्धार जान कर, हर्षातिरेक से जन्मोत्सव मनाया है। जिनके द्वारा भविष्य में हित होने की आशा हो, उनका अत्यादर किया ही जा.ा है। इसा दष्टि से इस प्रसंग को समझना चाहिए।
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