Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र
गान गाने लगी । एक ओर देवांगनाएँ सुमंगला और सुनन्दा को जाने लगी। पीठी, चन्दन, इत्र, उत्तम वस्त्र और बहुमूल्य आभूषण आदि से दोनों वधुएँ सजाई गई । दूसरी ओर देव, ऋषभदेवजी को स्नानादि से शृंगारित करने लगे । विवाह के लिए एक सुन्दर मण्डप बनाया गया । भव्य आसन लगाये गये । श्री ऋषभदेवजी को और दोनों कन्याओं को स्वर्ण सिंहासन पर पूर्वाभिमुख बिठाये । इंद्र ने सुमंगला और सुनन्दा का हाथ श्री ऋषभकुमार के हाथ में दिया और लग्न-ग्रंथी में जोड़े । गन्धर्वगण, बाजे बजाने लगे और बहुत-से देवी-देवता गायन तथा नृत्यादि करने लगे। नाभि राजा, मरुदेवा और अन्य यगलिक स्त्री-पुरुष एकत्रित हो कर इस विवाहोत्सव को आश्चर्यपूर्वक देखते रहे । विवाह कार्य पूर्ण कर के इन्द्रादि देव स्वर्ग में गये । उसी दिन से इस भरत क्षेत्र में विवाह-विधि प्रारंभ हुई।
विधानों का खूब समावेश हुआ लगता है। जैसे--विवाह के समय दही उछालना, मक्खन फेंकना, वेदिका बनाना, अग्नि के फेरे लेना, मथानी को वर के भाल से तीन बार स्पर्श करवाना, सरावले में अग्नि रख कर उसमें नमक डालना और उस सरावले को वर से ठुकरा कर नष्ट करवाना, वेदि का स्थान गोबर से लिपना, वर को अर्घ देना, दुर्वा चढ़ाना, मातृ-भवन (कुलदेवी ?) में लग्न होना, देवियों द्वारा अनुचर (वर के साथ रहने वाले मित्र-श्री ऋषभ कुमार के साथ इन्द्र के सामानिक देव अनुचर थे) की विविध प्रकार से हंसी-मजाक करना आदि और देवांगनाओं की विविध हलचलों का वर्णन है तो रसपूर्ण और काव्य-कला से समृद्ध, किंतु ये क्रियाएँ ग्रंथकार के अपने समय की श्रीऋषभकुमार के लग्न में जुड़ गई है।
श्री आदिकुमार का सुनन्दा के साथ विवाह हुआ। इस घटना को कई सुधारक लोग, 'पुर्नविवाह' बता कर विधवा-विवाह के पक्ष में बरबस घसीट ले जाते हैं । यह उनका अन्याय है। पत्नी बनने के पूर्व ही विधवा मान लेने जैसी बेसमझी इस बात में है। यह ठीक है कि युगलिक ही पतिपत्नी बन जाते हैं । यदि सुनन्दा के साथ जन्मा हुआ युगल नहीं मरता, तो वही उसका पति बनता, किंत उनका भाई-बहिन का सम्बन्ध भी तो मानना चाहिए न.? क्या युगलिकों में भाई-बहिन होते ही नहीं ? और गर्भ से ही पति-पत्नी बन कर जन्म लेते थे ? वास्तव में वे जब तक माता-पिता के संरक्षण में रहते थे तब तक भाई-बहिन के रूप में रहते थे और ज्यों ही सयाने हए कि स्वतन्त्र विचरण करने लगते । स्वतन्त्र विचरण के दिन से उन्हें पति-पत्नी मानना उचित है। इसके पूर्व वे भाई-बहिन थे। मनन्दा के साथ जन्मे हए बच्चे का मरण ब.लवय में (भाई-बहिन के रूप में माता-पिता के संरक्षण में रहते थे तभी) हो गया था। अतएव उसे कुंवारी (अपरिणिता) मानना ही उचित है । जब उसमें पत्नीभाव की उत्पत्ति ही नहीं हुई बो उसे विधवा कसे मार ली गई ? यह अन्याय नहीं है क्या?
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