Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भ० ऋष मदेवजी--इन्द्रों का आगमन और जन्मोत्सव
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सामानिक देवों के आसन सजाये गये। उसके पूर्व में इन्द्र की आठ इन्द्रानियों के सिंहासन लगे । दक्षिण-पूर्व के मध्य में आभ्यंतर सभा के सदस्य देवों के सिंहासन, दक्षिण में मध्य सभा के देवों के और दक्षिण-पश्चिम के मध्य में बाह्य परिषद के देवों भद्रासन तथा पश्चिम दिशा में सेनापतियों के सिंहासन लगाये गये । इन सब के आस-पास आत्मरक्षक देवों के सिंहासन लगे।
इस प्रकार विमान की पूर्णरूप से रचना कर के शकेन्द्र से निवेदन किया। शकेन्द्र ने उत्तर वैक्रिय कर के अपना रूप बनाया और इन्द्रानियों तथा समस्त देव-परिषद् के साथ विमान के निकट आया और विमान की परिक्रमा करता हुआ पूर्व द्वार के सोपान चढ़ कर विमान में अपने सिंहासन पर बैठ गया । सामानिक देव उत्तर द्वार से और अन्य देव दक्षिण द्वार से आ कर अपने-अपने आसनों पर बैठ गये । इन्द्र की इच्छा से विमान गतिशील हुआ और सौधर्म स्वर्ग के मध्य में हो कर चला। उसके पीछे अन्य देवों के विमान भी शीघ्रता से चले। वे असंख्य द्वीपों और समुद्रों पर होते हुए नन्दीश्वर द्वीप पर आय । रतिकर पर्वत पर ठहर कर पालक विमान को संक्षिप्त किया (एक लाख योजन के बड़े विमान को बिलकुल छोटा बनाया) और वहाँ से चल कर भगवान के जन्म-स्थान पर आया । सूतिकागृह की प्रदक्षिणा करने के बाद विमान ईशानकोण में ठहराया गया।
इन्द्र, विमान में से उतर कर प्रभु के पास आया । इन्द्र को देखते ही दिशाकुमारियों ने उन्हें प्रणाम किया । इन्द्र ने प्रदक्षिणा कर के प्रभु को और माता को प्रणाम किया और माता से इस प्रकार कहने लगा;
___“हे रत्नकुक्षिधारिणी जगत्माता! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप धन्य हैं, पुण्यवती हैं, उत्तम लक्षणों से युक्त हैं । आपका जन्म सफल है । संसार में जितनी भी पुत्र वाली माताएँ हैं, उन सभी में आप अधिकाधिक पवित्र है। आपने धर्म की आदि करने वाले धर्म का प्रसार कर के जगत् के जीवों को परम सुख प्राप्त कराने वाले, ऐसे आदि तीर्थङ्कर को जन्म दिया है। मैं सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र हूँ और आपके पुत्र का जन्मोत्सव करने के लिए यहाँ आया हूँ। आप मुझ से किसी प्रकार का भय नहीं करें।"
इतना कह कर इन्द्र ने मातेश्वरी को निद्राधीन कर दिया और प्रभु का एक प्रति
x देवों का शरीर वैक्रिय' होता है। उसमें हमारी तरह रक्त-मांस, हड्डी आदि नहीं होते। उनके स्वाभाविक शरीर को भवधारणीय' कहते हैं और आवश्यकतानुसार बढ़ाने-घटाने और इच्छित रूप बनाने की क्रिया को 'उत्तर वैक्रिय' कहते हैं। .
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