________________
( २३ )
खेदपूर्वक गांगलिऋषिने कहा कि "जन्म दरिद्र की भांति मुझे दरिद्री से पुत्रीको पहिरावनी भी नहीं दी जा सकती, मुझे धिकार है- " यह कहते हुए ऋषिकी आंखोंसे दुःखके आंसू गिरने लगे । इतने ही में जलवृष्टिकी भांति एक पासके आमके वृक्ष परसे दिव्यवस्त्र, अलंकार आदि गिरकर ढेर लग गया । यह देख सबने आश्चर्य चकित हो मनमें निश्चय किया कि इस कन्याका भाग्य उत्तरोत्तर बढता ही जाता है । मेघ वृष्टिके समान झाड परसे फल तो गिरते हैं पर वस्त्रालंकार पडते कभी नहीं देखा । वास्तव में पुण्य का प्रभाव अद्भुत है ।
पुण्यैः संभाव्यते पुंसामसंभाव्यमपि क्षितौ | तेरुरुसमाः शैलाः किं न रामस्य वारिधौ ! ॥ १ ॥
इस लोक में पुण्य से क्या संभव नहीं ? अर्थात् सब कुछ संभव है । देखो, रामचन्द्र के पुण्य से मेरुपर्वत के समान शिलाएं भी सागर पर तैरती रही थीं ।
तदनन्तर राजा मृगध्वज गांगलि ऋषि तथा नव वधू कमलमाके साथ आनन्ददायक श्री आदिनाथ भगवान के मंदिर में गया और 'हे प्रभो! आपके पवित्र दर्शन पुनः शीघ्र मिले व शिला पर खुदी
मूर्तिके सदृश आपकी मूर्ति मेरे चकित चित्तमें सर्वदा स्थित रहे." यह कह अपनी स्त्री कमलमाला सहित भगवानको वन्दना करके मंदिर के बाहिर आया तथा ऋषिसे मार्ग पूछा ।