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संत की उपस्थिति उसका मीन
उसका सान्निध्य
उसका दर्शन
समाज सेवा है।
प्रवचन है
पथ-दर्शन है चिन्तामुक्ति की औषधि है।
कई बार उपाध्याय श्री के पावन दर्शनों का लाभ मिला। वे सरल हृदय से दिल खोलकर दिल की बातें करते थे। बातें करते हुए वे दूसरे को भी अपना ही समझते थे। उनका आत्मीयतापूर्ण सरल व्यवहार हर मानस को अपनी ओर सहसा आकर्षित कर लेता था।
उनका जीवन तो शानदार था ही, मरण ही बहुत शानदार रहा है। संथारापूर्वक मरण महापुरुष का ही होता है। वे चले गए परन्तु अपना स्वस्थ छोड़ गए। समाज को एक चलता फिरता (जंगम) तीर्थ दे गए - वह तीर्थ है - आचार्य देवेन्द्र मुनि जी म. का पावन सानिध्य पावन दर्शन आचार्य श्री उपाध्याय श्री की अनमोल कृति हैं। मैं अन्त में महामना उपाध्यायप्रवर श्री पुष्कर मुनिजी म. को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हुआ लेखनी को विराम देता हूँ।
दिव्य साधक- उपाध्यायप्रवर पूज्यश्री पुष्करमुनि जी म.
- डॉ. सुव्रत मुनि शास्त्री (एम. ए., पी-एच. डी. )
श्रमण संस्कृति की यह दृढ़ आस्था रही है कि हृदय के पूर्ण निर्मल हो जाने पर मन के निश्वार्थ होने से मानव की सहज परहित की वृत्ति पूर्णतया जाग्रत हो जाती है, उसमें धर्मज्योति जगमगा उठती है, तब वह सबका आश्रय केन्द्र बन जाता है। लोग उसकी दिव्यता से प्रभावित हो उसकी जय-जयकार करने लगते हैं। इसीलिए कहा है
जयन्ति ते महाभागाः कारुण्यामृत सागराः । छिन्दन्ति ये महापाशान्, माया मोहवतां नृणाम् ॥
अर्थात् जो महापुरुष मोह-माया के बन्धनों में जकड़े हुए लोगों को बन्धनमुक्त करते हैं, करुणारूपी अमृत के सागर के समान ऐसे उत्तम दिव्य पुरुषों की ही जय-जयकार होती है। जो मानव समाज, देश और राष्ट्र के लिए कल्याणप्रद होते हैं, उन्हीं यशस्वी महापुरुषों को लोग सदैव स्मरण करते हैं। ऐसे महापुरुषों के लिए लिखा है
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देश जातिहितार्थाय ये श्वसन्ति महायशाः । म्रियन्ते ते जनाऽत्र, मानवैः शुद्ध मानसैः ॥
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
अर्थात् देश और जाति के हित और कल्याण के लिए जो महान आत्माएँ मानव जीवन धारण करती हैं, शुद्ध हृदय वाले मनुष्यों के द्वारा यहाँ उन्हीं का स्मरण किया जाता है। ऐसे ही दिव्य महापुरुष थे पूज्य उपाध्याय प्रवर श्री पुष्कर मुनि जी महाराज । उपाध्याय श्री का जन्म मेवाड़ की वीरभूमि के सिमटार ग्राम में ब्राह्मण कुल में हुआ । जन्म-जात शुभ संस्कारों के प्रभावस्थ भाव आप युवा होते-होते वैराग्य रंग में स्नात होकर पूज्य श्री ताराचन्द्र जी महाराज के श्री चरणों में दीक्षित हो गए। अपने अथक सेवाभाव, स्वाध्यायशीलता एवं साधना- परायणता के बल पर वे निरन्तर प्रगति पथ पर अग्रसर होते रहे। उनकी साधना से आत्मा की तेजस्वी शक्ति प्रस्फुटित हुई। अपनी वाणी से वे प्रवचन प्रभावना करने लगे। उनकी वाणी अनुपम ओज भरी होती थी। अपने निरन्तर के स्वाध्याय, चिन्तन, मनन और आन्तरिक अनुभूति के योग से उन्होंने साहित्यिक जगत में प्रवेश किया। साहित्य की गद्य-पद्य दोनों विधाओं पर उन्होंने अधिकार पूर्ण लिखा। उनका कथा साहित्य, शोध ग्रन्थ और गीत संग्रह इसके सशक्त प्रमाण हैं।
उनकी दिव्य साधना, ओजस्वी वाणी और वात्सल्यमयी धर्म प्रभावना से अनेक भव्य आत्माओं ने धर्म बोध प्राप्त कर अपने जीवन को आलोकित किया। उनमें से कुछ उच्चकोटि के साधुसाध्वी बन गए तो कुछ उच्चाचार वन्त श्रावक-श्राविकाएँ बन गए। उसका ज्वलन्त उदाहरण हैं वर्तमान में अखिल भारतीय स्थानकवासी श्रमणसंघ के आचार्यप्रवर पूज्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म. और कविरत्न श्रद्धेय श्री गणेश मुनि जी म. आदि अनेक श्रेष्ठ साधु और आर्यकाएँ हैं जो वर्तमान में अपनी उच्च पावन साधना एवं प्रवचन प्रभावना से संघ का गौरव बढ़ा रहे हैं।
पूज्यवर उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. के सन् १९८४ के चाँदनी चौक, दिल्ली के चीमासे में अनेक बार उनके दर्शन, प्रवचन तथा तत्पश्चात् विहार यात्रा में उनके साथ विचरण का सौभाग्य पूज्य गुरुदेव उत्तर भारतीय प्रवर्तक भण्डारी श्री पद्मचन्द जी म. के साथ मिला था। उस समय उनके आशुकवित्व एवं मधुर स्वभाव ने सभी का मन मोह लिया था। वे जहाँ भी जाते वहीं एक अद्भुत धर्म प्रभावना का रंग जम जाता था। वे जहाँ बड़ों को सम्मान देते थे वहाँ छोटों को अपने सहज वात्सल्य से सराबोर कर देते थे, जिससे प्रत्येक साधक उन्हें अपना मानता था और मन में यही भाव रहता था कि अधिक से अधिक समय तक उनका सान्निध्य मिलता रहे। ऐसे महान् दिव्य साधक अपने अमर गुणों के कारण सदा सर्वदा अशरीरी होकर अपने यशस्वी गुणों के लिए संघ समाज में स्थायी स्थान बनाए रखते हैं। ऐसे शाश्वत महान् साधक के प्रति अपने भक्ति भरे भाव समर्पित करते हुए हम गौरव का अनुभव करते हैं।
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