Book Title: Pushkarmuni Smruti Granth
Author(s): Devendramuni, Dineshmuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 757
________________ 2050bacha.se.daoad.com Cop860 । जन-मंगल धर्म के चार चरण ६१९ ।। ब्रेनबग नामक एक कीड़ा ऐसा होता है जो पशु को काटता है। माँसाहार का भला ऐसा करिश्मा कहाँ! और इससे पशु पागल हो जाता है। किन्तु पागलपन का यह प्रभाव बात प्रथम विश्व युद्ध की है जब डेनमार्क की नाकाबंदी कर अस्तित्व में रहते हुए भी लम्बे समय तक अप्रकट रूप में रहता है। दी गई थी। उस देश में खाद्य संकट उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक ही कभी-कभी तो इसमें दस वर्षों का समय भी बीत जाता है कि सभी था। तब वहाँ माँसाहार बन्द कर दिया गया। अन्न पर देशवासियों को वह पशु पागल लगने लगे। इसके पूर्व भी पशु रोगी तो हो चुका को रखा गया। इस व्यवस्था के समय एक समय एक वर्ष में वहाँ होता है। यदि इसका माँस आहार में प्रयुक्त हो जाए (जो कि प्रायः की मृत्यु दर ३४ प्रतिशत कम हो गयी थी। द्वितीय विश्व युद्ध के होता ही है) तो उस माँसाहारी को भी वही रोग हो जाता है। दौरान ऐसी स्थिति देनमार्क में भी आयी। मॉस टी के कारण वहाँ माँसाहार के साथ वेक्टीरिया की भी बड़ी भारी समस्या रहती है।। भी रक्त संचार सम्बन्धी रोगों में उल्लेखनीय कमी आई। इन बेक्टीरियाँ रक्त में अतिशीघ्र ही विकसित हो जाते हैं। वधोपरान्त घटनाओं ने विश्व को माँसाहार विरोधी सोच के लिए प्रेरित किया। तुरन्त ही माँस में निहित रक्त बेक्टीरिया ग्रस्त होकर सड़ने लग इसी समय ब्रिटेन में भी माँस आपूर्ति में कमी आयी। सार्वजनिक जाता है। इस दूषित माँस का आहार करने वाले चाहे उसे कितना स्वास्थ्य में इससे वहाँ बड़ी प्रगति हुई। शिशु मृत्यु दर में कमी आने ही ताजा माने, किन्तु माँस के साथ उनके शरीर में बेक्टीरिया भी 1 के साथ-साथ वहाँ रक्ताल्पता के रोग में भी भारी गिरावट आयी। पहुंच जाते हैं। मांस तो पचकर समाप्त हो जाता है, किन्तु ये प्रमाण है माँसाहार से शाकाहार की श्रेष्ठता के। माँसाहार बेक्टीरिया पनपते ही रहते हैं जो आजीवन माँसाहारी का पीछा व्याधियों का आगार है तो शाकाहार रोग मुक्ति का द्वार है। नहीं छोड़ते और भाँति-भांति के घातक और भयावह रोगों को उत्पन्न करते रहते हैं। मानसिक पतन का आधार : माँसाहार इन सभी परिस्थितियों से यही निष्कर्ष निकलता है कि सामिष आहार का उद्देश्य शरीर के विकास तक ही सीमित नहीं होता, भोजियों को यह जान लेना चाहिए कि वे केवल माँस नहीं, दूषित उसका प्रयोजन मन के विकास का भी रहता है। शाकाहार द्वारा तो माँस आदि का उपभोग करते हैं और वह संकट से मुक्त नहीं है। यह शर्त पूर्ण हो जाती है किन्तु माँसाहार इस दिशा में सक्रिय नहीं जैसा कि पूर्व पंक्तियों में वर्णित है शाकाहार ऐसे सभी संकटों से है। आहार से मानसिक, मानसिक से बौद्धिक और अध्यात्मिक मुक्त है। वही विवेकशीलजनों के लिए चयन योग्य है। माँस मनुष्य उन्नति की सिद्धि होनी चाहिए। श्रीमद् भागवत् में भोजन को के आहार हेतु बना ही नहीं। अण्डा तो किसी के लिए भी खाने की वर्गीकृत कर तीन श्रेणियों में रखा गया हैवस्तु नहीं है, वह तो प्रजनन प्रक्रिया की एक अवस्था विशेष है। १. सात्विक भोजन उसे खाद्य रूप में प्रकृति ने बनाया ही नहीं। वास्तविकता यह है कि २. राजसिक भोजन और अण्डा, माँस, मछली आदि सभी माँसाहार मनुष्य के लिए भोज्य ३. तामसिक भोजन रूप में अप्राकृतिक पदार्थ हैं। इन्हें आहार रूप में ग्रहण करना अप्राकृतिक कृत्य है जो अपने परिणामों में निश्चित रूप से घातक सात्विक भोजन में फल, सब्जी, अन्न, दलहन (दालें) दूध, मेवे, और हानिप्रद ही सिद्ध होता है। मक्खन इत्यादि सम्मिलित होते हैं और इस प्रकार का भोजन मनुष्य की आयु और शक्ति को बढ़ाने वाला होता है। यह शक्तिवर्धक भी बेहतर क्या है : माँसाहार अथवा शाकाहार : होता है और मानवोचित मनोवृत्तियों को बढ़ावा देता है। आहारी प्रबुद्धजन धीरे-धीरे माँसाहार के गुणगान को मिथ्या और को सात्विक भोजन सुख, शांति, करुणा, अहिंसा की भावना से शाकाहार के औचित्य को स्वीकारने लगे हैं। अमेरिका के हृदय रोग परिपूर्ण करता है। यह मन को राक्षसी गलियों में विचरण नहीं विशेषज्ञ डॉ. व्हाइट सन् १९६४ ई. में भारत आए। काश्मीर में कराता। मनोमस्तिष्क की पतन से रक्षा करने वाला यह एक सबल उनकी भेंट वहाँ के आदिवासी हुंजा कबीलों से हुई। उन्हें आश्चर्य साधन है। राजसिक भोजन में अति गर्म, तीखे, चटपटे, खट्टे, हुआ कि हुंजा कबीलों में अनेक लोग १० से ११0 वर्ष की आयु तीक्ष्ण मिर्च-मसाले युक्त व्यंजन सम्मिलित होते हैं। ये रूखे और के हैं और वे सभी पूर्णतः स्वस्थ हैं। डॉ. व्हाइट ने १० वर्ष से जलन पैदा करने वाले पदार्थ होते हैं। यह भोजन उत्तेजना उत्पन्न उच्च आयु के २५ हुंजाओं का परीक्षण किया और पाया कि उनमें करने व बढ़ाने वाला होता है। यह रोग, दुःख, चिन्ता व तनाव को से एक भी रक्तचाप या हृदय रोग से पीड़ित नहीं है। उन्होंने अपना | जन्म देता है। निकृष्ट कोटि का भोजन होता है-तामसिक भोजन! शोध लेख अमरीका की शीर्ष पत्रिका "हार्टजर्नल' में प्रकाशित बासी, सड़े-गले, नीरस, अधपके, दुर्गे-पयुक्त खाद्य पदार्थ इस श्रेणी किया और इस लेख में उन्होंने हुंजा जाति के लोगों में हृदय रोग में आते हैं। तामसिक भोजन क्रोध, हिंसा, विद्वेष का जागृत और नहीं होने का श्रेय उनकी आहार प्रणाली को दिया। यह सारी की प्रबल बनाता है। यह भोजन मन का पतन करता है, कुसंस्कारों की सारी जाति शाकाहारी है। ओर उन्मुख करता है, बुद्धि को भ्रष्ट करता है, चरित्र का नाश FORESO 19020 Tagga 0000000000000000 0 00000 0 0000-0D DAD R

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