Book Title: Pushkarmuni Smruti Granth
Author(s): Devendramuni, Dineshmuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 804
________________ Pandalabanadalan 00000000000000000000 A000346046 106580000.RORE D६६४ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । यह व्रत खंडित हो सकता है उन्हें अतिचार कहते हैं। इनकी ४. मित्रानुरागशंसा-पूर्व में, बाल्यावस्था में, युवावस्था में अपने -56090924 कुल संख्या पाँच मानी गई है१५- १. जीविताशंसा, २. मरणाशंसा, मित्रों के साथ की गई गतिविधियों को याद करना एवं उससे दुःखी कुवत ३. भयानुशंसा, ४. मित्रागुराग और ५. निदानुशंसा. होना भी अतिचार है। 2000 १. जीविताशंसा-अधिक समय तक जीवित रहने की ५. निदानानुशंसा-लोक-परलोक के विषय में चिन्तन करना अभिलाषा। संथारा लेने वाले साधक को मन में यह विचार नहीं है तथा यह सोचना कि मेरे इस कठिन व्रत का फल क्या मिलेगा रखना चाहिए कि मैं कुछ समय तक और जीवित रहता तो निदानानुशंसा अतिचार है। अच्छा होता। इस तरह जैन दर्शन में उल्लिखित संथारा की अवधारणा पर २. मरणाशंसा-शीघ्र मरण की कामना। व्रत में होने वाले कष्टों विचार प्रस्तुत किया गया है। त ब से घबराकर शीघ्र मरने की कामना नहीं करनी चाहिए। पता ३. भयानुशंसा-मैंने अपने जीवन में कई तरह के उपभोगों का । सहायक आचार्य 9 भोग किया है। मैं इस प्रकार सोता था, खाता था, पीता ता आदि जीवन विज्ञान विभाग प्रकार के भावों का चिन्तन करना अतिचार है। जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनू। 900CRORASESPRE 8 S संदर्भ स्थल १. सहायक-आचार्य, जीवन विज्ञान विभाग, जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं-३४१३०६, राजस्थान। २. उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च नि प्रतिकारे। धर्माय तनु विमोचन माहुः सल्लेखनामार्याः। -रलकरंडकश्रावकाचार, ५/१ ३. उत्तराध्ययन सूत्र,७/२,३२ ४. आराधनासार, २५-२८ ५. आयारो, पृ. २९३ ६. तेसिं सोच्चा सपुज्जाणं संजयाणं वुसीमओ। न संतसन्ति मरणन्ते सीलवन्ता बहुस्सुया॥ -उत्तराध्ययन, ५/२९ ७. णिम्ममो णिरहंकारो णिक्कसाओ जिदिदिओ धीरो। अणिदाणो दिट्ठिसंपण्णोमरंतो आराहयो होइ॥ -मूलाचार, १०३ ८. बारसेव उ वासाई संलेहुक्कोसिया भवे। संवच्छर मज्झिमिया छम्मासा य जहन्निया॥ -उत्तराध्ययन,३६/२५ ९. वही., ३६/२५२-२५४ भगवती-आराधना, २५५-२५६ १०. गामे अदुवा रण्णे थंडिलं पडिलेहिया। अप्पाणं तु विण्णाय तणाई संथरे मुणी। -आचारांग (संपा.-श्रीचन्द सुराणा), ८/८/२२ ११. पाणा देह विहिंसंति ठाणतो ण वि उब्भमे। आसवेहिं विवित्तेहिं तिप्पमाणों घियासए॥ -वही., ८/८/२५ १२. णत्थि भयं मरणसमं जम्मणसमयं ण विज्जदे दुक्खें। जम्मणमरणादकं छिंदि ममत्ति सरीरादो॥ -मूलाचार, ११९ १३. स्थानांग, २/४/४१४, भगवती-आराधना, विजयोदया टीका, पृ. ५१, समाधिमरणोत्साह दीपक, ९१ १४. गोम्मटसार (कर्मकांड), ६० १५. जीवितमरणासंसा मित्रानुरागसुखानुबंध निदान-करणानि॥ -तत्त्वार्थ सूत्र, ७/३२ 200300DCSDO90 DOOR 200000 Prerage 2002-DEOSDaseDAODOS

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