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गुरु एक ऐसा दिव्य दीपक है. जिसकी माटी की देह बिखर जाने के बाद भी उसकी ज्ञान- रश्मियाँ आलोक वर्तिका बनकर हजारों-हजार पथिकों का पथ आलोकित करती रही है
साधना के शिखर पुरुष गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी ऐसे ही गुरु थे, जिन्होंने अपने भीतर के गुरु को जगाया, जिप-तप ध्यान योग की ज्योति में तपाया और असीम आत्म-ऐश्वर्य प्राप्त कर कृत कृत्य हुए। उनके चरणों में जो भी आया उसे मुक्त हाथों से बीटा-सद्भावों का उजाला, विघ्न भय हारी मंगल पाठ का प्रसाद: जीवन को सुखमय आनन्दमय बनाने वाला अनन्त आत्म-ऐश्वर्य ।
उनके चरणों में बैठने वाला हर सांस में आत्म-उल्लास की सुगंध का अहसास पाता था। हर पल शांति की जीवनदायी शीतल फुहारों से स्फूर्ति और संचेतना का अनुभव करता था। उनका चरण-स्पर्श तो दूर, उनका सान्निध्य भी मन की छाया की भाँति मनोवांछित देने
वाला था।
-आचार्य देवेद्र मनि
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