Book Title: Pushkarmuni Smruti Granth
Author(s): Devendramuni, Dineshmuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 765
________________ | जन-मंगल धर्म के चार चरण ६२७ आठ क्रोधज व्यसन हैं-(१) चुगली खाना, (२) अति साहस (२) मांसाहार करना, (३) द्रोह करना, (४) ईर्ष्या, (५) असूया, (६) अर्थ-दोष, जूए के समान मांसाहार भी एक व्यसन है। मांसाहार मानव (७) वाणी के दण्ड, और (८) कठोर वचन। प्रकृति के सर्वथा विरुद्ध है। वह किसी भी स्थिति में मानव के लिए व्यसन के सात प्रकार उपयुक्त नहीं है। मांसभक्षी पशुओं के शरीर की रचना और जैनाचार्यों ने व्यसन के मुख्य सात प्रकार बताये हैं-(१) जुआ, मानव-शरीर की रचना बिलकुल भिन्न है। आधुनिक शरीरशास्त्रियों (२) मांसाहार, (३) मद्यपान, (४) वेश्यागमन, (५) शिकार, (६) । का भी स्पष्ट अभिमत है कि मानव का शरीर मांसभक्षण के लिए चोरी, (७) परस्त्री-गमन। इन सातों व्यसनों में अन्य जितने भी। सर्वथा अनुपयुक्त है। मानव में जो मांस खाने की प्रवृत्ति है, वह व्यसन हैं उन सभी का अन्तर्भाव हो जाता है। उसका नैसर्गिक रूप नहीं है, किन्तु विकृत रूप है। प्राचीन आर्य आधुनिक युग में अश्लील चलचित्र, कामोत्तेजक, रोमांटिक । मनीषी तो मांस को स्पष्ट त्याज्य बताते ही हैं। महाभारतकार कहते और जासूसी साहित्य, बीड़ी-सिगरेट आदि भी व्यसनों की तरह ही हैं-"मांसाहार प्राणिजन्य होने के कारण त्याज्य है, क्योंकि मांस न हानिप्रद हैं। पेड़ पर लगता है और न जमीन में पैदा होता है" आचार्य मनु ने कहा-जीवों की हिंसा के बिना मांस उपलब्ध नहीं होता और जीवों ___ये व्यसन अन्धकूप के सदृश है जिसमें गिरकर मानव सभा का वध कभी स्वर्ग प्रदान नहीं करता; अतः मांसभक्षण त्यागना प्रकार के पापकृत्य करता है। व्यसन प्रारम्भ में लघु प्रतीत होते हैं, चाहिए। किन्तु धीरे-धीरे हमुमान की पूँछ की तरह बढ़ते चले जाते हैं। आग की नन्ही-सी चिनगारी घास के विशाल ढेर को नष्ट कर देती है। हिंसा से पाप कर्म का अनुबन्ध होता है। इसलिए उसे स्वर्ग तो छोटी-सी ग्रन्थि कैंसर का भयंकर रूप ग्रहण कर लेती है। बिच्छू का मिल ही नहीं सकता। या तो उसे इसी जन्म में उसका फल प्राप्त जरा-सा डंक सारे शरीर को तिलमिला देता है, थोड़ा-सा विष प्राणों होता है अथवा अगले जन्म में नरक और तिर्यंच गति के भयंकर का अपहरण कर लेता है। वैसे ही थोड़ा-सा भी दुर्व्यसन जीवन की कष्ट सहन करने पड़ते हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने स्पष्ट रूप से कहामहान् प्रतिष्ठा को धूल में मिला देता है। अतः व्यसनों के सम्बन्ध में पंगुपन, कोढ़ीपन, लूला आदि हिंसा के ही फल हैं। स्थानांग में सतत जागरूक रहने की आवश्यकता है। मांसाहार करने वाले को नरकगामी बताया है। आचार्य मनु ने कहा-मांस का अर्थ ही है, जिसका मैं मांस खा रहा हूँ वह अगले (१) जूआ जन्म में मुझे खाएगा। मांस शब्द को पृथक-पृथक लिखने से "मां" बिना परिश्रम के विराट् सम्पत्ति प्राप्त करने की तीव्र इच्छा ने और "स" याने वह मुझे खाएगा। इस प्रकार मांस का अर्थ जूआ या द्यूत-क्रीड़ा को जन्म दिया। जूआ एक ऐसा आकर्षण है मनीषियों ने प्रतिपादित किया है। कबीरदास ने भी मांसाहार को जो भूत की तरह मानव के सत्त्व को चूस लेता है। जिसको यह । अनुचित माना है और मांसाहार करने वाले को नरकगामी कहा है। लत लग जाती है वह मृग-मरीचिका की तरह धन-प्राप्ति की अभिलाषा से अधिक से अधिक धन बाजी पर लगाता चला जाता (३) मद्यपान है और जब धन नष्ट हो जाता है तो वह चिन्ता के सागर में जितने भी पेय पदार्थ, जिनमें मादकता है, विवेक-बुद्धि को डुबकियाँ लगाने लगता है। उसके प्रति किसी का भी विश्वास नहीं । नष्ट करने वाले हैं या विवेक-बुद्धि पर परदा डाल देते हैं वे सभी रहता। भारत के सभी ऋषि और महर्षियों ने जूए की निन्दा की है। 'मद्य' के अन्तर्गत आ जाते हैं। मदिरा एक प्रकार से नशा लाती है। ऋग्वेद में भी द्यूत क्रीड़ा को त्याज्य माना है। वहाँ द्यूत क्रीड़ा को | इसलिए भांग, गाँजा, चरस, अफीम, चुरुट, सिगरेट, बीड़ी, जीवन को बरबाद करने वाला दुर्गुण बताया गया है। जूआ एक | तम्बाकू, ताड़ी, विस्की, ब्रांडी, शेम्पेइन, जिम, रम पोर्ट, बियर, देशी प्रकार की खुजली है, जितना उसे खुजलाओगे उतनी ही वह और विदेशी मद्य हैं, वे सभी मदिरापान में ही आते हैं। मदिरापान बढ़ती जाएगी। यह एक छुआ-छूत की बीमारी है जो दूसरों को भी ऐसा तीक्ष्ण तीर है कि जिस किसी को लग जाता है उसका वह लग जाती है। सर्वस्व नष्ट कर देता है। मदिरा की एक-एक बूंद जहर की बूँद के सूत्रकृतांग में भी चौपड़ या शतरंज के रूप में जूआ खेलना । सदृश ह। मानव प्रारम्भ में चिन्ता को कम करने के लिए मादरापान मना किया है। क्योंकि हारा जुआरी दुगुना खेलता है। एक आचार्य | करता है। पर धीरे-धीरे वह स्वयं ही समाप्त हो जाता है। शराब ने ठीक ही कहा है जहाँ पर आग की ज्वालाएँ धधक रही हों वहाँ । का शौक बिजली का शॉक है। जिसे तन से, धन से और जीवन के पर पेड़-पौधे सुरक्षित नहीं रह सकते, वैसे ही जिसके अन्तर्मानस में आनन्द से बरबाद होना हो उसके लिए मदिरा की एक बोतल ही जुए की प्रवृत्ति पनप रही हो उसके पास लक्ष्मी रह नहीं सकती। पर्याप्त हैं। मदिरा की प्रथम घुट मानव को मूर्ख बनाती है, द्वितीय एक पाश्चात्य चिन्तक ने भी लिखा है-जूआ लोभ का बच्चा है पर घुट पागल बनाती है, तृतीय चूंट से वह दानव की तरह कार्य करने फिजूलखर्ची का माता-पिता है। लगता है और चौथी घूट से वह मुर्दे की तरह भूमि पर लुढ़क कतर BRDomestamelsa7 300000000000 BAR DID0perBritates Pers YOGo300:0932 Someo 1600

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