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रहा हूँ।" संलेखना तपस्या के उनतीसवें दिन मुनिश्री जी ने यावज्जीवन संथारा ग्रहण करने की दृढ़ इच्छा व्यक्त की । तदनुसार उनके लिए ४४६ का एक घास का विछीना (संस्तारक) विछाया गया। मुनिजी उसी पर आसीन हुए जो संथारे के अंतिम क्षण तक उसी मर्यादा में रहे व्रतों की आलोयणा एवं प्रायश्चित्त आदि करके मुनिश्री ने अरिहंत सिद्ध भगवान को नमस्कार करके यावज्जीवन संथारा पचखा। संथारा पचख लेने के बाद उनके चेहरे पर निश्चिंतता, प्रसन्नता और अपूर्व समाधि का भाव प्रकट हो रहा था। जो इसके पहले कभी नहीं देखा गया।
इकतालीसवें दिन दार्शनिक संत आचार्य विनोबा भावे राजगृह आये, और सीधे तपस्वीजी के दर्शन करने उदयगिरि की तलहटी में पहुँचे। विनोबाजी ने तपस्वी जी के चरणों में अपना सिर रख दिया और गद्गद् होकर गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ योगी के शान्त स्वरूप का साक्षात् किया। उन्होंने मुनिश्री जी से रस ग्रहण करने तथा पानी चालू रखने की भी विनती की। तपस्वी जी ने दृढ़ता के साथ प्रेमपूर्वक कहा - " अब खाने-पीने की बात करने का समय निकल चुका है।" श्री जयप्रकाश नारायण भी सपत्नीक तपस्वीजी के दर्शन करने आये उनका तपस्तेज और प्रसन्न मुखमुद्रा देखकर नतमस्तक हो गये।
तपस्या काल में मुनिजी अधिकतर मौन और ध्यानस्थ जैसे रहते। ४२वें दिन जैसे उनको कुछ अन्तरज्ञान हो गया हो, अपने पुत्र जयंत मुनिजी की हथेली पर लिखकर सूचना दी - “हवे मने असातानो उदय थशे, परन्तु गबराशो नहीं ।" अब शरीर में कुछ असाता का उदय होगा, किन्तु तुम लोग घबराओगे नहीं। इसके बाद मुनिजी के शरीर में निर्जल उपवास की गर्मी से कई प्रकार की असह्य व्याधियाँ उठ खड़ी हुईं, किन्तु उस असह्य शारीरिक वेदना में भी मुनिजी अत्यन्त शांत और प्रसन्न थे। अन्तिम समय तक उनके अन्दर सजगता बनी रही। अन्तिम क्षणों की महावेदना को भी शांति के साथ भोगते रहे। ४५वें अन्तिम दिन शरीर त्यागने से कुछ समय पूर्व ही वे लगभग स्थिर योगमुद्रा में लीन से हो गये। मृत्यु के समय न कोई हिचकी आई न आँखें फटीं । जिस मुद्रा में सोये थे, उसी मुद्रा में चिर स्थिरता प्राप्त कर ली । ४
तपस्वी जगजीवन मुनिजी का यह संलेखना संधारा हजारों प्रबुद्ध व्यक्तियों ने देखा और यह अनुभव किया कि जीवन को कृतार्थता के शिखर पर चढ़ाने की यह कला, समाधिपूर्वक देह त्याग की यह आत्मविजयी शैली हर साधक की अंतिम मनोकामना है।
तपस्वी श्री चतुरलालजी म. का संथारा
सौराष्ट्र में दरियापुरी सम्प्रदाय की परम्परा में तपस्वी श्री चतुरलालजी महाराज का संधारा बहुत प्रसिद्ध व प्रभावशाली माना जाता है। उनमें शरीर की असह्य वेदना के प्रति अपार तितिक्षा और सहिष्णुता का भाव देखकर जनता आश्चर्य मुग्ध थी।
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
मुनिश्री का जन्म वि. सं. १९३६, चैत्र मास में सौराष्ट्र के पींज ग्राम में हुआ। लगभग २३ वर्ष की भर जवानी में ही हृदय में तपस्या की लौ जल उठी अनेक प्रकार की तपस्याएँ की स्वाध्याय, सामायिक आदि करने लगे।
वि. सं. १९९५, साठ वर्ष की उम्र में पूज्य भायचन्द्र जी महाराज के पास भागवती जैन दीक्षा ग्रहण की श्री चतुरलालजी महाराज स्वभाव से बहुत ही सरल और अत्यन्त करुणाशील थे। दीक्षा के बाद वे निरन्तर एकान्तर तप करते रहे। जीवन में उन्होंने ८ मासखमण तप किये, व अन्य भी अनेक प्रकार की तपस्याएँ कीं ।
लगभग ८२ वर्ष की उम्र में उन्हें प्रोटस्टेट ग्रंथि की असह्य वेदना उठी। डाक्टरों ने आपरेशन के लिए कहा, किन्तु तपस्वीजी ने आपरेशन की जो विधि पूछी तो उन्हें लगा, इसमें मेरे गृहीत महाव्रतों में दोष लगेगा अनेक विकल्पों के पश्चात् उन्होंने मन ही मन में निर्णय लिया
इदं शरीरं परिणामपेशलं पतत्यवश्यं श्लथसंधि जर्जरम किमीषः क्लिश्यसि मूढ दुर्मते ! निरामयं वीर रसायनं पिव!
-यह शरीर क्षण विनाशी है, रोगों का धाम है, कितनी ही इसकी संभाल व रक्षा करो, एक दिन अवश्यमेव नष्ट होगा। फिर हे अज्ञानी जीव ! औषधि आदि से रक्षण करने का क्लेशदायी मोह क्यों करता है ? वीर वचन रूपी रसायन का पान कर, जिससे तू पूर्ण निरामयता प्राप्त कर सकेगा।
शरीर और आत्मा की पृथक्ता का बोध करते-करते मुनिजी धीरे-धीरे शरीर के प्रति अनासक्त होते गये वेदनाओं से जूझते रहे, और जब देखा, अब यह शरीर नष्ट होने वाला है, मेरी निर्दोष साधुचर्या के योग्य नहीं रहा है, तो उन्होंने संलेखना (क्रमिक तपस्या) प्रारंभ कर दी। १५ दिन की संलेखना के पश्चात् उन्होंने यावज्जीवन अनशनव्रत ग्रहण कर लिया। हजारों श्रद्धालु जनों ने उनके दर्शन किये और देखा कि रोगों से आक्रांत शरीर के प्रति बे एकदम ही निरपेक्ष थे। जैसे शरीर की वेदना उनके मन को किंचित् मात्र भी स्पर्श नहीं कर रही है। उनके चेहरे पर अपूर्व शांति झलकती थी।
उपवास के ४२वें दिन अर्थात् अनशन संथारा के २८वें दिन जीवन की अन्तिम घड़ी में आलोयणा आदि करके चौविहार अनशन स्वीकार कर लिया। उस समय उनके अन्तःकरण में जो आनन्द और प्रफुल्लता उमड़ी उसकी झलक उनके चेहरे पर देखकर दर्शक मुग्ध हो उठे। कहते हैं कि उस उज्ज्वल परिणाम धारा में कोई विशिष्ट ज्ञान भी हुआ, ऐसा संभव लगता है। उन्होंने अपने भाव प्रकट करने चाहे, किन्तु वाणी की शक्ति लगभग क्षीण हो चुकी थी, इसलिए एक कागज व पैन लेकर उन्होंने लिखा
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