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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । लुकमान ने कहा-अब आप नहीं मरेंगे।
धन हो तो वह कहीं भी चला जाय उसे कोई कष्ट नहीं होता। इसी बादशाह ने साश्चर्य पूछा-यह कैसे?
तरह जिस साधक ने जीवन कला के साथ मृत्युकला भी सीख ली।
है, उस साधक के मन में मृत्यु से भय नहीं होता। उसकी हत्तन्त्री के लुकमान ने कहा-आपने कहा था कि मुझे दुबला बनना है।
तार झनझनाते हैं-मैंने सद्गति का मार्ग ग्रहण किया है। मैंने जीवन देखिए, आप आप दुबले बन गये हैं। मृत्यु के भय ने ही आपको
में धर्म की आराधना की है, संयम की साधना की है। अब मुझे । कृश बना दिया है।
मृत्यु से भय नहीं है। मेरे लिए मृत्यु विषाद का नहीं, हर्ष का भगवान महावीर ने प्राणियों की मनःस्थिति का विश्लेषण करते । कारण है। वह तो महोत्सव की तरह है। हुए कहा है-"प्राणिवधरूप असाता कष्ट सभी प्राणियों के लिए
जीवन और मृत्यु एक-दूसरे के पूरक महाभय रूप है।"५
मृत्यु से भयभीत होने का कारण यह है कि अधिकांश व्यक्तियों । मृत्यु कला
का ध्यान जीवन पर तो केन्द्रित है, पर वे मृत्यु के संबंध में कभी भारतीय मूर्धन्य चिन्तकों ने जीवन को एक कला माना है। जो सोचना भी नहीं चाहते। उनका प्रबल पुरुषार्थ जीने के लिए ही होता साधक जीवन और मरण इन दोनों कलाओं में पारंगत है, वही है। उन्होंने जीवन पट को विस्तार से फैला रखा है। किन्तु उस पट अमर कलाकार है। भारतीय संस्कृति का आघोष है कि जीवन और को समेटने की कला उन्हें नहीं आती। वे जाग कर कार्य तो करना । मरण का खेल अनन्त काल से चल रहा है। तुम खिलाड़ी बनकर । चाहते हैं, पर उन्हें पता नहीं केवल जागना ही पर्याप्त नहीं है, खेल रहे हो। जीवन के खेल को कलात्मक ढंग से खेलते हो तो विश्रान्ति के लिए सोना भी आवश्यक है। जिस उत्साह के साथ मरने के खेल को भी ठाट से खेलो। न जीवन से झिझको, न मरण जागना आवश्यक है, उसी उत्साह के साथ विश्रान्ति और शयन से डरो। जिस प्रकार चालक को मोटर गाड़ी चलाना सीखना आवश्यक है जिस प्रकार जागरण और शयन एक-दूसरे के पूरक हैं । आवश्यक है, उसी तरह उसे रोकना सीखना भी आवश्यक है। वैसे ही जीवन और मृत्यु भी। केवल उसे गाड़ी चलाना आये, रोकना नहीं आये, उस चालक की स्थिति गंभीर हो जाएगी। इसी तरह जीवन कला के साथ मृत्यु-कला
मरण शुद्धि भी बहुत आवश्यक है। जिस साधन ने मृत्यु कला का सम्यक् प्रकार
महाभारत के वीर योद्धा कर्ण ने अश्वत्थामा को कहा था कि से अध्ययन किया है वह हंसते, मुस्कराते, शान्ति के साथ प्राणों का तू मुझ सूतपुत्र कहता हा पर चाह जा कुछ भा हा म अपन पुरुषाथ परित्याग करेगा। मृत्यु के समय उसके मन में किंचित मात्र भी से तुझे बता दूंगा कि मैं कौन हूँ। मेरा पुरुषार्थ तुम देखो। उद्वेग नहीं होगा। वह जानता है ताड़ का फल वृन्त से टूटकर नीचे प्रस्तुत कथन से यह स्पष्ट होता है कि व्यक्ति अपने आपको गिर जाता है वैसे ही आयुष्य क्षीण होने पर प्राणी जीवन से च्युत बनाता है। जिस साधक ने जीवन कला के रहस्य को समझ लिया हो जाता है।६ मृत्यु का आगमन निश्चित है। हम चाहे कितना भी है, वह मृत्युकला के रहस्य को भी समझ लेता है। जिसने वर्तमान प्रयत्न करें उससे बच नहीं सकते। काल एक ऐसा तन्तुवाय है जो । को सुधार लिया है, उसका भविष्य अपने आप ही सुधर जाता है। हमारे जीवन के ताने के साथ ही मरण का बाना भी बुनता जाता | आत्म विशुद्धि के मार्ग के पथिक के लिए जीवन शुद्धि का जितना है। यह बुनाई शनैः-शनैः आगे बढ़ती है। जैसे तन्तुवाय दस बीस । महत्व है उससे भी अधिक महत्व मरण शुद्धि का है। गज का पट बना लेने के पश्चात् ताना बाना काटकर वस्त्र को पूर्ण
पंडित आशाधर जी ने कहा-जिस महापुरुष ने संसार परम्परा करता है और उस वस्त्र को समेटता है। जीवन का ताना बाना भी
को विनष्ट करने वाले समाधिमरण अर्थात् मृत्यु कला में पूर्ण इसी प्रकार चलता है। कालरूपी जुलाहा प्रस्तुत पट को बुनता जाता
योग्यता प्राप्त की है उसने धर्म रूपी महान् निधि को प्राप्त कर है। पर एक स्थिति ऐसी आती है जब वह वस्त्र (थान) को समेटता
लिया है। वह मुक्ति पथ का अमर पथिक है। उसका अभियान आगे है। वस्त्र का समेटना ही एक प्रकार मृत्यु है। जिस प्रकार रात्रि और
बढ़ने के लिए है। वह पड़ाव को घर बनाकर बैठना पसन्द नहीं दिन का चक्र है वैसे ही मृत्यु और जन्म का चक्र है।
करता है किन्तु प्रसन्न मन से अगले पड़ाव की तैयारी करता है, एक वीर योद्धा अपनी सुरक्षा के सभी साधन तथा शस्त्रास्त्रों यही मृत्युकला है। को लेकर युद्ध के मैदान में जाता है, वह युद्ध के मैदान में भयभीत
मरण के विविध प्रकार नहीं होता, उसके अन्तर्मानस में अपार प्रसन्नता होती है, क्योंकि वह युद्ध की सामग्री से सन्नद्ध है।
का जो व्यक्ति जीवन कला से अनभिज्ञ है वह मृत्यु कला से भी
अनभिज्ञ है। सामान्य व्यक्ति मृत्यु को तो वरण करता है, पर किस मृत्यु महोत्सव
प्रकार मृत्यु को वरण करना चाहिए, उसका विवेक उसमें नहीं एक यात्री है। यदि उसके पास पाथेय है तो उसके मन में एक होता। जैन आगम व आगमेतर साहित्य में मरण के संबंध में प्रकार की निश्चिन्तता होती है। यदि उसके पास यथेष्ट अन्न और विस्तार से विवेचन किया गया है। विश्व के जितने भी जीव हैं, उन
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