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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । सागारी संथारा करने का विधान है, जिसे “संथारा पोरसी" कहते अन्य पदार्थ में बन्धन की अनुभूति होती है। वह बन्धन को हैं। सोने के पश्चात् पता नहीं प्रात:काल सुखपूर्वक उठ सकेगा या । समझकर उससे मुक्त बनना चाहता है। नहीं। इसीलिए प्रतिपल प्रतिक्षण सावधान रहने का शास्त्रकारों ने
या महाराष्ट्र के संत कवि ने कहा-"माझे मरण पाही एले डोला सन्देश दिया है। मोह की प्रबलता में मृत्यु को न भूला जाये। उसे ।
तो झाला सोहला अनुपम्य"_"मैंने अपनी आँखों से मृत्यु को देख प्रतिक्षण याद रखा जाये। ममता भाव से मुड़कर समता भाव में ।
लिया, यह अनुपम महोत्सव है।" रमण किया जाये, बाह्य जगत् से हटकर अन्तर् जगत् में प्रवेश किया जाए। सोते समय यदि विशुद्ध भावना रहती है तो स्वप्न में
वह मृत्यु को आमंत्रित करता है, पर मृत्यु से भयभीत नहीं भी विचार विशुद्ध रहते हैं। इसीलिए साधक सोते समय "संथारा
होता। जैसे कबूतर पर बिल्ली झपटती है तब कबूतर आँखें मूंद पोरसी" करता है।
लेता है और वह सोचता है, अब बिल्ली झपटेगी नहीं। आँखें
मूंद लेने मात्र से बिल्ली कबूतर को छोड़ती नहीं है। इसी तरह संथारा या पंडितमरण एक महान कला है। मृत्यु को मित्र
यमराज भी मृत्यु भी भुला देने वाले को छोड़ता नहीं है। वह तो मानकर साधक उसके स्वागत की तैयारी करता है। वह अपने
अपना हमला करता ही है। अतः साधक कायर की भाँति मुँह नहीं जीवन का अन्तर्निरीक्षण करता है। उसका मन स्फटिक की तरह
मोड़ता अपितु वीर सेनानी की तरह मुस्कराते हुए मृत्यु का स्वागत उस समय निर्मल होता है। पण्डितमरण को समाधिमरण भी कहते
करता है। हैं। संथारा ग्रहण करने के पूर्व साधक संलेखना करता है। संलेखना। संथारे के पूर्व की भूमिका है। संलेखना के पश्चात् जो संथारा किया। संलेखना : मृत्यु पर विजय पाने की कला जाता है, उसमें अधिक निर्मलता और विशुद्धता होती है।
____संलेखना मृत्यु पर विजय प्राप्त करने की कला सिखाती है। वह संलेखना का महत्व
जीवन-शुद्धि और मरण शुद्धि की एक प्रक्रिया है। जिस साधक ने PORब श्रमण और श्रावक दोनों के लिए संलेखना आवश्यक मानी गई
मदन के मद को गलित कर दिया है जो परिग्रह पंक से मुक्त हो
चुका है, सदा सर्वदा आत्म चिन्तन में लीन रहता है वही व्यक्ति उस है। श्वेताम्बर परम्परा में “संलेखना" शब्द का प्रयोग हुआ है तो
मार्ग को अपनाता है। संलेखना में सामान्य मनोबल वाला साधक, दिगम्बर परम्परा में सल्लेखना शब्द का। संलेखना व्रतराज है। जीवन की अन्तिम वेला में की जाने वाली एक उत्कृष्ट साधना है।
विशिष्ट मनोबल प्राप्त करता है। उसकी मृत्यु असमाधि का नहीं,
समाधि का कारण है। एक सन्त कवि ने कहा-जैसे कोई वधू डोले जीवन भर कोई साधक उत्कृष्ट तप की साधना करता रहे, पर अन्त समय में यदि वह राग-द्वेष के दल-दल में फंस जाये६८ तो
पर बैठकर ससुराल जा रही हो७१ तब उसके मन में अपार आह्लाद उसका जीवन निष्फल हो जाता है। उसकी साधना विराधना में
होता है, वैसे ही साधक को भी परलोक जाते समय अपार प्रसन्नता
होती है। परिवर्तित हो जाती है। आचार्य शिवकोटि ने तो यहां तक लिखा है-ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप धर्म में चिरकाल तक निरतिचार प्रवृत्ति संलेखना और समाधिमरण करने वाला मानव यदि मरण के समय धर्म की विराधना कर
संलेखना और समाधिमरण ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। बैठता है तो वह संसार में अनंत काल तक परिभ्रमण करता है।६९
आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में प्रथम संलेखना का संलेखना : जीवन की अन्तिम साधना
लक्षण बताया है और द्वितीय श्लोक में समाधिमरण का। आचार्य संलेखना मन की उच्चतम आध्यात्मिक दशा का सूचक है।
शिवकोटि ने “संलेखना" और समाधिमरण को एक ही अर्थ में संलेखना मृत्यु का आकस्मिक वरण नहीं है और न वह मौत का
प्रयुक्त किया है। आचार्य उमास्वाति ने श्रावक और श्रमण दोनों के आह्वान ही है, वरन् जीवन के अन्तिम क्षणों में सावधानीपूर्वक
लिए संलेखना का प्रतिपादन कर संलेखना और समाधिमरण का
भेद मिटा दिया है। आचार्य कुन्दकुन्द समाधिमरण श्रमण के लिए चलना है। वह मृत्यु का मित्र की तरह आह्वान करता है-मित्र! आओ, मैं तुम्हारा स्वागत करता हूँ। मुझे शरीर पर मोह नहीं है।
मानते हैं और संलेखना गृहस्थ के लिए। मैंने अपने कर्तव्य को पूर्ण क्रिया है। मैंने अगले जन्म के लिए संलेखना क्या शिक्षाव्रत है सुगति का मार्ग ग्रहण कर लिया है।७0 संलेखना जीवन की अन्तिम श्रावक के द्वादश व्रतों में जो चार शिक्षाव्रत हैं उनमें आचार्य आवश्यक साधना है। वह जीवन मंदिर का सुन्दर कलश है। यदि कन्दकन्द ने संलेखना को चौथा व्रत माना है।७२ आचार्य कुन्दकन्द संलेखना के बिना साधक मृत्यु का वरण करता है तो उसे कदापि
॥ साधक मृत्यु का वरण करता है तो उस कदापि । का अनुसरण करते हुए शिवार्यकोटि, आचार्य देवसेन, आचार्य B.SODS उचित नहीं माना जा सकता है।
जिनसेन, आचार्य वसुनन्दि आदि ने संलेखना को चतुर्थ शिक्षाव्रत में सं लेखना को एक दृष्टि से स्वेच्छा मृत्यु कहा जा सकता है। सम्मिलित किया है। किन्तु आचार्य उमास्वाति ने संलेखना को 2000 DD जब वैराग्य का तीव्र उदय होता है तब साधक को शरीर और श्रावक के द्वादश व्रतों में नहीं गिना है। उन्होंने संलेखना को अलग
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