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जीवन के कांटे व्यसन
राष्ट्र की अमूल्य निधि
स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् भारतीयों का उत्तरादायित्व अत्यधिक बढ़ गया है। देश के सामने अनेक विकट समस्याएँ हैं। उन सभी समस्याओं में सबसे बड़ी समस्या है राष्ट्र की नैतिक, चारित्रिक दृष्टि से रक्षा करना। वही राष्ट्र की अमूल्य निधि है। राष्ट्र का सामूहिक विकास इसी आदर्शोन्मुखी उत्कर्ष पर निर्भर है। पवित्र चरित्र का निर्माण करना और उसकी सुरक्षा करना, सैनिक रक्षा से भी अधिक आवश्यक है। भौतिक रक्षा की अपेक्षा आध्यात्मिक परम्परा का रक्षण सार्वकालिक महत्त्व को लिए हुए है। आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त समुन्नत राष्ट्र भी नैतिकता व चारित्रिक उत्कर्ष के अभाव में वास्तविक सुख-शान्ति का अनुभव नहीं कर सकता। अर्धमूलक उन्नति से वैयक्तिक जीवन को भौतिक समृद्धि की दृष्टि से समाज में भले ही उच्चतम स्थान प्राप्त हो किन्तु जन-जीवन उन्नत समुन्नत नहीं हो सकता।
भौतिक उन्नति से वास्तविक सुख-शान्ति नहीं
भारत में अतीत काल से ही मानवता का शाश्वत मूल्य रहा है । समाजमूलक, आध्यात्मिक परम्परा के प्रबुद्ध तत्त्व-चिन्तकों ने मानवों को वैराग्यमूल त्यागपूर्ण जीवन व्यतीत करने की प्रबल प्रेरणा दी जिससे मानवता की लहलहाती लता विश्व मण्डप पर प्रसरित होकर राष्ट्रीय विमल विचारों के तथा पवित्र चरित्र के सुमन खिला सके और उन सुमनों की सुमधुर सौरभ जन-जीवन में ताज़गी, स्फुरणा और अभिवन जागृति का संचार कर सके।
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राजनैतिक श्रम से अर्जित स्वाधीनता की रक्षा धर्म, नीति, सभ्यता, संस्कृति और आत्मलक्ष्यी संस्कारों को जीवन में मूर्तरूप देने से ही हो सकती है। केवल नव-निर्माण के नाम पर विशाल बाँध, जल से पूरित सरोवर, लम्बे चौड़े राजमार्ग और सभी सुख-सुविधा सम्पन्न भवनों का निर्माण करना अपर्याप्त है और न केवल यन्त्रवाद को प्रोत्साहन देना ही पर्याप्त है। जब तक जीवन व्यसनों के घुन से मुक्त नहीं होगा, तब तक राष्ट्र का और जीवन का सच्चा व अच्छा निर्माण नहीं हो सकता । एतदर्थ ही गीर्वाण गिरा के एक यशस्वी कवि ने कहा है
"मृत्यु और व्यसन इन दोनों में से व्यसन अधिक हानिप्रद है। क्योंकि मृत्यु एक बार ही कष्ट देती है, पर व्यसनी व्यक्ति जीवन भर कष्ट पाता है और मरने के पश्चात् भी वह नरक आदि में विभिन्न प्रकार के कष्टों का उपभोग करता है जबकि अव्यसनी जीते जी भी यहाँ पर सुख के सागर पर तैरता है और मरने के पश्चात् स्वर्ग के रंगीन सुखों का उपभोग करता है।"
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
-आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि
व्यसन की परिभाषा
व्यसन शब्द संस्कृत भाषा का है जिसका तात्पर्य है 'कष्ट' । यहाँ हेतु में परिणाम का उपचार किया गया है। जिन प्रवृत्तियों का परिणाम कष्टकर हो, उन प्रवृत्तियों को व्यसन कहा गया है। व्यसन एक ऐसी आदत है जिसके बिना व्यक्ति रह नहीं सकता। व्यसनों की प्रवृत्ति अचानक नहीं होता। पहले व्यक्ति आकर्षण से करता है। फिर उसे करने का मन होता है। एक ही कार्य को अनेक बार दोहराने पर वह व्यसन बन जाता है।
व्यसन बिना बोये हुए ऐसे विष-वृक्ष हैं जो मानवीय गुणों के गौरव को रौरव में मिला देते हैं। ये विष-वृक्ष जिस जीवन भूमि पर पैदा होते हैं उसमें सदाचार के सुमन खिल ही नहीं सकते। मानव में ज्यों-ज्यों व्यसनों की अभिवृद्धि होती है, त्यों-त्यों उसमें सात्त्विकता नष्ट होने लगती है। जैसे अमरबेल अपने आश्रयदाता वृक्ष के सत्त्व को चूसकर उसे सुखा देती है, वैसे ही व्यसन अपने आश्रयदाता (व्यसनी) को नष्ट कर देते हैं। नदी में तेज बाढ़ आने से उसकी तेज धारा से किनारे नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही व्यसन जीवन के तटों को काट देते हैं। व्यसनी व्यक्तियों का जीवन नीरस हो जाता है, पारिवारिक जीवन संघर्षमय हो जाता है और सामाजिक जीवन में उसकी प्रतिष्ठा धूमिल हो जाती है।
व्यसनों की तुलना
व्यसनों की तुलना हम उस दलदल वाले गहरे गर्त से कर सकते हैं जिसमें ऊपर हरियाली लहलहा रही हो, फूल खिल रहे हों पर ज्यों ही व्यक्ति उस हरियाली और फूलों से आकर्षित होकर उन्हें प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ता है त्यों ही वह दल-दल में फँस जाता है। व्यसन भी इसी तरह व्यक्तियों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं, अपने चित्ताकर्षक रूप से मुग्ध करते हैं, पर व्यक्ति के जीवन को दलदल में फँसा देते हैं। व्यसन व्यक्ति की बुद्धिमता, कुलीनता, सभी सद्गुणों को नष्ट करने वाला है।
Paranhaj se
व्यसनों के अठारह प्रकार
यों तो व्यसनों की संख्या का कोई पार नहीं है। वैदिक ग्रन्थों में व्यसनों की संख्या अठारह बताई है। उन अठारह में दस व्यसन कामज हैं और आठ व्यसन क्रोधज हैं। कामज व्यसन हैं(१) मृगया (शिकार), (२) अक्ष (जुआ), (३) दिन का शयन, (४) परनिन्दा, (५) परस्त्री-सेवन, (६) मद, (७) नृत्य सभा, (८) गीत-सभा, (९) वाद्य की महफिल, (१०) व्यर्थ भटकना ।
Dainelib