Book Title: Pushkarmuni Smruti Granth
Author(s): Devendramuni, Dineshmuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 762
________________ 15000 8800000. 0030906.505663030902 00000000000000000000000 TC0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 ADDC 68- 1६२४ Sabal 6 उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । शाकाहारी प्रायः प्रसन्नचित्त, शान्तप्रिय, आशावादी और सहिष्णु इसका परिणाम बड़ा भयंकर होता है। विचार करें चोरी करने वाले होते हैं। इसीलिए सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से मांसाहार और की स्वयं भी चोरी होती जाती है, जिसकी उसे कोई खबर नहीं मांसाहारी सदा अनादृत समझे जाते हैं। रहती। उसकी अचौर्यवृत्ति की होती है। उसका चारित्र्य ही चुर मांसाहारी मद्यपेयी होता है। जिस पदार्थ के सेवन करने से जाता है। चौर्य संस्कार परिपुष्ट हो जाने पर इस दुष्प्रवृत्ति को प्राणी मादकता का संचार हो, उसे मद्य के अन्तर्गत माना जाता है। भांग कभी आक्रान्त नहीं कर पाता। गाँजा, चरस, अफीम, चुरूट, सिगरेट, बीड़ी, तम्बाकू, ताड़ी, पर-स्त्री गमन नामक व्यसन व्यक्ति की कामुक प्रवृत्ति पर विस्की, ब्रांडी, शेम्पेइन, जिन, रम्प, पोर्ट, वियर, देशी और विदेशी निर्भर करता है। सामाजिक और नैतिक दृष्टियों से पर-स्त्री-सेवन मदिरा वस्तुतः मद्य ही माने जाते हैं। जैनचर्या तो इस दृष्टि से } अत्यन्त अवैध पापाचार है। यही स्त्रियों के लिए पर-पति- सेवन का अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि से विचार करती है। यहाँ बासी भोजन, दिनारू रूप बन जाता है। इस व्यसन से व्यक्ति सर्वत्र निंदित होता है। उस अचार आदि के सेवन न करने के निदेश हैं। पर किसी का विश्वास नहीं रहता। वह अन्तःबाह्य दृष्टियों से प्रायः हर मतिभंग और बुद्धि विनाश का मुख्य कारण है-नशा। शराब का भ्रष्ट हो जाता है। पर-स्त्री-सेवन और वेश्यावृत्ति में भेद है। देशज रूप है सड़ाव। साड़ अर्थात् खमीर शराब की प्रमुख प्रवृत्ति है। वेश्यावृत्ति उन्मुक्त मैथुन की नाली है जबकि परस्त्री बरसाती इसमें दुर्गन्ध आती है, अस्तु वह सर्वथा अभक्ष्य है। इसीलिए संसार परनाला। किसी का जूठन सेवन करना पर-स्त्री-सेवन है। यह पशु 200500 के सभी धर्म-प्रवर्तकों, दार्शनिकों तथा आध्यात्मिक चिन्तकों ने प्रवृत्ति है। पशुप्रवृत्ति में किंचित संयम रहता है, इसमें उसका भी मदिरापान की निन्दा की है और उसे पापकर्म का मूल माना है। सर्वथा अभाव रहता है। पुरुष प्रवृत्ति के यह सर्वथा प्रतिकूल है। शरीर और बुद्धि दोनों जब विकृत और बेकाबू हो जाते हैं तब इस प्रकार व्यसन व्यक्ति को भ्रष्ट ही नहीं करता अपितु उसे व्यसनी वेश्यागमन की ओर उन्मुख होता है। महामनीषी भर्तृहरि ने निरा निकृष्ट ही बना देता है। जीव अपनी आत्मिक उन्नति प्राप्त्यर्थ वेश्यागमन को जीवन-विनाश का पुरजोर कारण बताया है। यथा । मनुष्य गति की कामना करता है क्योंकि उत्तम उन्नति के लिए प्राणी वेश्याऽसौ मदन ज्वाला रूपेन्धन समेक्षिता। को संयम और तपश्चरण कर अपनी समस्त इच्छाओं का निरोधन कामिभिर्यत्र हूयन्ते यौवनानि धनानि च॥ करना पड़ता है। कामना का सामना करना साधारण पुरुषार्थ नहीं है, जो उस पर विजय प्राप्त कर लेता है, वह उत्तरोत्तर विकास के अर्थात् वेश्या कामाग्नि की ज्वाला है जो सदा रूप-ईंधन से सोपान पर आरोहण करता है। व्यसनी जीवनचर्या में सदा सुसज्जित रहती है। इस रूप-ईंधन से सजी हुई वेश्या कामाग्नि अवरोहण करता है जबकि संयमी करता आरोहण और फिर ज्वाला में सभी के यौवन धन आदि को भस्म कर देती है। अन्ततः ऊर्ध्वारोहण। वेश्या समस्त नारी जाति का लांछन है और वेश्यागामी है चारों गतियों में निरन्तर जन्म-मरण के दारुण दुःखों को कोढ़। विचार करें वेश्यासंसार का जूठन है। इसके सेवन से नाना | भोगता रहता है भला प्राणी। उसके भव-भ्रमण का यह क्रम जारी व्याधियों का जन्म होता है। वेश्यागमन एक भयंकर दुर्व्यसन है। है। सभी पर्यायों में प्राणी के लिए मनुष्य पर्याय श्रेष्ठ है। उसकी शिकार का अपरनाम है पापर्द्धि। पाप से प्राप्त ऋद्धि है पापर्द्धि। श्रेष्ठता का आधार है उसमें शील का उजागरण तथा आत्मिक गुणों मकार सेवन अर्थात् माँस, मधु और मदिरा-से जितनी दुष्वृत्तियों का के प्रति वन्दना करने के शुभ संस्कारों का. उदय। प्रत्येक जीवधारी उपचय होता है, उन सभी का संचय शिकार वृत्ति या शिकार खेलने में जो आत्मतत्व है उसमें समानता की अनुभूति करना अथवा होना से होता है। शिकारी स्वभावतः क्रूर, कपटी और कुचाली होता है। वस्तुतः समत्व का जागरण है। सारे पापों और उन्मार्गों का मूल अपनी विलासप्रियता, स्वार्थपरता, रसलोलुपता, धार्मिक अंधता तथा कारण है ममत्व। ममत्व मिटे तब समत्व जगे। ज्ञान, दर्शन और मनोरंजन हेतु विविध प्राणलेवा दुष्प्रवृत्ति के वशीभूत शिकारी चारित्र की त्रिवेणी इस दिशा में साधक को सफलता प्रदान करती शिकार जैसे भयंकर व्यसन से अपना अधोगमन करता है। है। इस त्रिवेणी से अनुप्राणित जीवन जीने वाला व्यक्ति सदा सुखी शिकार की नाईं चोरी भी भयंकर व्यसन है। चोर परायी । और सन्तोषी जीवन जीता है। उसका प्रत्येक चरण मूर्छा मुक्त तथा सम्पत्ति का हरण-अपहरण तो कर लेता है पर साथ ही अपना जाग्रत होता है तब उसका उन्मार्ग की ओर उन्मुख होने का प्रश्न सम्मान, सन्तोष तथा शान्ति-सुख समाप्त कर लेता है। चोरी के ही नहीं उठता। दूसरी शब्दावलि में इसी बात को हम इस प्रकार अनेक द्वार होते हैं उनमें प्रवेश कर चोर प्रायः अविश्वास और कह सकते हैं कि व्यसन मुक्त जीवन सदा सफल और सुखी होता लोभ जैसी प्रवृत्तियों को जगा लेता है। लोभ के वशीभूत होकर चोर । है। जब यही त्रिवेणी सम्यक्चर्या में परिणत हो जाती है तब साधक मनोवृत्ति व्यक्ति को चालाक और धूर्त भी बना देती है। वह अपने की साधना मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर होने लगती है। मोक्ष की व्यापार और व्यवहार में सर्वथा अप्रामाणिक जीवन जी उठता है। प्राप्ति चारों पुरुषार्थों की श्रेयस्कर परिणति है। CSCARD0 DO तत्तता REP 30.600ORTraredesrorism DeponD 0000000000000000 BDO ODO 2017mageptemal RORA 6000

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