Book Title: Pushkarmuni Smruti Granth
Author(s): Devendramuni, Dineshmuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 761
________________ 2006669006600 2000000000000 18000200. 30000 Sas एण्डन्डर adoDadas0.9020.0000000000000000 GANOA0000.00 -900Cdry 1 जन-मंगल धर्म के चार चरण ६२३ 16000 Doo यह भ्रम भी दूर कर लेना चाहिए कि दूध की अपेक्षा अण्डा होगा। धर्माचारियों और अहिंसाव्रतधारियों को तो इस फेर में पड़नाaana अधिक पौष्टिक होता है। शाकाहार वह कभी हो ही नहीं सकता, । ही नहीं चाहिए। अण्डा-अन्ततः अण्डा ही है। किसी के यह कह देने यद्यपि किसी को यह विश्वास हो तब भी उसे अण्डा सेवन के दोषों से कि कुछ अण्डे शाकाहारी भी होते हैं-अण्डों की प्रकृति में कुछ से परिचित होकर, स्वस्थ जीवन के हित इसका परित्याग ही कर । अन्तर नहीं आ जाता। अण्डे की बीभत्स भूमिका इससे कम नहीं हो देना चाहिए। अण्डे हानि ही हानि करते हैं-लाभ रंच मात्र भी जाती, उसकी सामिषता ज्यों की त्यों बनी रहती है। मात्र भ्रम के नहीं-यही हृदयंगम कर इस अभिशाप क्षेत्र से बाहर निकल आने में वशीभूत होकर, स्वाद के लोभ में पड़कर, आधुनिकता के आडम्बर ही विवेकशीलता है। दूध, दालें, सोयाबीन, मूंगफली जैसी साधारण में ग्रस्त होकर मानवीयता और धर्मशीलता की, शाश्वत जीवन शाकाहारी खाद्य सामग्रियां अण्डों की अपेक्षा अधिक मूल्यों की बलि देना ठीक नहीं होगा। दृढ़चित्तता के साथ मन ही पोष्टिकतत्वयुक्त हैं, वे अधिक ऊर्जा देती हैं और स्वास्थ्यवर्द्धक है। मन अहिंसा पालन की धारणा कीजिए-अण्डे को शाकाहारी मानना तथाकथित शाकाहारी अण्डों के इस कंटकाकीर्ण जंगल से निकल | छोड़िए। आगे का मार्ग स्वतः ही प्रशस्त होता चला जाएगा। 2060P कर शुद्ध शाकाहार के सुरम्य उद्यान का आनन्द लेना प्रबुद्धतापूर्ण BUR 60.090805 सुखी जीवन का आधार : व्यसन मुक्ति DP006 126900DOS । -विद्यावारिधि डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया (एम. ए., पी-एच. डी., डी. लिट् (अलीगढ़)) सुखी जीवन का मेरुदण्ड है-व्यसन मुक्ति। व्यसनमुक्ति का "धूतं च मासं च सुरा च वेश्या पापर्द्धिचौर्य परदार सेवा। आधार है श्रम। सम्यक् श्रम साधना से जीवन में सद्संस्कारों का | एतानि सप्त व्यसनानि लोके घोरातिघोरं नरकं नयन्ति॥ प्रवर्तन होता है। इससे जीवन में स्वावलम्बन का संचार होता है। अर्थात् जुआ, माँसाहार, मद्यपान, वेश्यागमन, शिकार, चोरी, स्वावलम्बी तथा श्रमी सदा सन्तोषी और सुखी जीवन जीता है। तथा पर-स्त्री-गमन से ग्रसित होकर प्राणी लोक में पतित होता है, श्रम के अभाव में जीवन में दुराचरण के द्वार खुल जाते हैं। मरणान्त उसे नरक में ले जाता जाता है। संसार में जितने अन्य जब जीवन दुराचारी हो जाता है तब प्राणी इन्द्रियों के वशीभूत हो । अनेक व्यसन हैं वे सभी इन सप्तव्यसनों में प्रायः अन्तर्मुक्त हो जाता है। प्राण का स्वभाव है चैतन्य। चेतना जब इन्द्रियों को अधीन | जाता है। काम करती है तब भोगचर्या प्रारम्भ हो जाती है और जब इन्द्रियाँ श्रम विहीन जीवनचर्या में जब अकूत सम्पत्ति की कामना की चेतना के अधीन होकर सक्रिय होते हैं तब योग का उदय होता है।। जाती है तब प्रायः द्यूत-क्रीड़ा अथवा जुआ व्यसन का जन्म होता है। भोगवाद दुराचार को आमंत्रित करता है जबकि योग से जीवन में । आरम्भ में चौपड़, पासा तथा शतरंज जैसे व्यसन मुख्यतः उल्लिखित सदाचार को संचार हो उठता है। हैं। कालान्तर में ताश, सट्टा, फीचर, लाटरी, मटका तथा रेस आदि श्रम जब शरीर के साथ किया जाता है तब मजूरी या मजदूरी । इसी व्यसन के आधुनिक रूप है। घूत-क्रीड़ा से जो भी धनागम होता का जन्म होता है। श्रम जब मास्तिष्क के साथ सक्रिय होता है तब है, वह बरसाती नदी की भाँति अन्ततः अपना जल भी बहाकर ले उपजती है कारीगरी। और जब श्रम हृदय के साथ सम्पृक्त होता है। जाता है। व्यसनी अन्य व्यसनों की ओर उत्तरोत्तर उन्मुख होता है। तब कला का प्रवर्तन होता है। जीवन जीना वस्तुतः एक कला है। वासना बहुलता के लिए प्राणी प्रायः उत्तेजक पदार्थों का सेवन मजूरी अथवा कारीगरी व्यसन को प्रायः निमंत्रण देती है। इन्द्रियों करता है। वह मांसाहारी हो जाता है। विचार करें मनुष्य प्रकृति से का विषयासक्त, आदी होना वस्तुतः कहलाता है-व्यसन। बुरी शाकाहारी है। जिसका आहार भ्रष्ट हो जाता है, वह कभी उत्कृष्ट आदत की लत का नाम है व्यसन। नहीं हो पाता। प्रसिद्ध शरीर शास्त्री डॉ. हेग के अनुसार शाकाहार संसार की जितनी धार्मिक मान्यताएँ हैं सभी ने व्यसन । से शक्ति समुत्पन्न होती है जबकि मांसाहार से उत्तेजना उत्पन्न होती मुक्ति की चर्चा की है। सभी स्वीकारते हैं कि व्यसन मानवीय गुणों । है। मांसाहारी प्रथमतः शक्ति का अनुभव करता है पर वह शीघ्र ही के गौरव को अन्ततः रौख में मिला देते हैं। जैनाचार्यों ने भी । थक जाता है। शाकाहारी की शक्ति और साहस स्थायी होता है। व्यसनों से पृथक रहने का निदेश दिया है। इनके अनुसार यहाँ प्रत्यक्षरूप से परखा जा सकता है कि मांसाहारी चिड़चिड़े, क्रोधी, व्यसनों के प्रकार बतलाते हुए उन्हें सप्त भागों में विभक्त किया । निराशावादी और असहिष्णु होते हैं क्योंकि शाकाहार में ही केवल गया है। यथा कैलसियम और कार्बोहाइड्रेट्स का समावेश रहता है, फलस्वरूप DDA MOR 19.09:0000 SHRIRalpap9.0.0-25Ele D95902050.000 000 जयगएकाएयाय 160200. a iraorat ssscplip3.0.0.0.00 2025 2022

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