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KODAL
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।। करता है, रोगों को उत्पन्न करता है, आलस्य और निष्क्रियता का माँसाहारी बना देती है। शिशु मन से शांति, मैत्री, करुणा और अभिशाप देता है। शाकाहार प्रथम वर्ग का सात्विक भोजन है और अहिंसा का प्रतीक होता है। जब उसे पहली बार माँसाहार कराया माँसाहार इस हीन कोटि का तामसिक भोजन है। आदर्श भोजन तन जाता है तो उसे वह रुचिकर प्रतीत नहीं होता। इसके पीछे की मन और आत्मा का विकास करता है, स्नेह, प्रेम, दया, करुणा, हिंसा, क्रूरता उसे विचलित करती है। उसे जानकर इस कुपथ पर शांति, अहिंसा का विस्तारक होता है। इस कसौटी पर सामिष } लगाया जाता है। यही षड्यन्त्र या दुरभिसंधि है भावी पीढ़ी को आहार खरा नहीं उतरता। कहा जाता है कि किसी व्यक्ति की रुचि । भ्रष्ट करने की। क्या अभिभावकों का यही कर्तव्य है, अपनी संतति का व्यंजन जानकर उसके चरित्र, आचरण और मनोवृत्तियों का के प्रति। पता लगाया जा सकता है। जैसा भोजन वह करता है-वैसा ही
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का छोटा पुत्र गम्भीर रूप से रुग्ण था। उसका आभ्यन्तरिक व्यक्तित्व होता है, वैसा ही उसका व्यवहार
मरणासन्न शिशु के लिए चिकित्सकों ने माँस का सूप निर्धारित होता है। माँसाहारियों के विषय में कहा जा सकता है कि वे प्रायः
किया। बापू से कहा गया कि बच्चे को बचाना हो तो यही एक क्रूर, क्रोधी, अकरुण, हिंसाप्रिय, निमर्म और हृदयहीन होते हैं।
उपाय है। किन्तु बापू का दृढ़ निश्चय दृढ़तर हो गया। उन्होंने कहा ग्वालियर में ४00 बंदियों का सर्वेक्षण किया गया था। इनमें से
कि चाहे जो परिणाम हो बच्चे को हम माँस का सूप नहीं देंगे। यह २५० माँसाहारी और १५० शाकाहारी थे। माँसाहारी बन्दियों में से
बापू की कठोर परीक्षा थी, जिसमें वे सफल हुए। बच्चे के प्राण ८५ प्रतिशत ऐसे थे जो अशान्त, अधीर, क्रोधी और कलह प्रिय
चमत्कारिक रूप में, बिना सूप दिए ही बच गये। जहाँ संकल्प की थे। हिंसा में वे कुछ भी आपत्तिजनक नहीं मानते थे। किन्तु
दृढ़ता हो, वहाँ कुछ भी असम्भव नहीं! शाकाहारी बन्दियों में से ९० प्रतिशत शान्तिप्रिय प्रसन्नचित्त, दयालु, सहानुभूतिपूर्ण, संवेदनशील थे। कहा जा सकता है कि माँसाहार
आवश्यकता इस बात की है कि भ्रांतियों के कुहासे से बाहर असुरत्व का मार्ग है तो शाकाहार देवत्व के समीप पहुँचाता है।
निकल कर हम माँसाहार को उसके नग्न रूप में देखें, पहचानें मनुष्य को मानव बनाने वाला माँसाहार नहीं, शाकाहार ही हो
उसके राक्षसत्व को और तब उसका संग न करने का निश्चय करें। सकता है। माँसाहार का क्षय हो! शाकाहार की जय हो!!
इस व्याधि के केन्द्र का परित्याग जितना ही शीघ्र किया जायेगा।
उतना ही शुभकारी होगा। जो जाग गये हैं उनका दायत्वि (नैतिक) मनुष्य स्वाभाविक रूप से सामिष नहीं होता। उसका जन्म
है कि गहरी नींद में सोयों को झिंझोड़ कर जगायें। यदि हमने एक निरामिष रूप में ही होता है। दुग्ध जैसा निर्दोष और पवित्र पदार्थ
माँसाहारी को भी इस मार्ग से हटाकर शाकाहारी बनाया तो यह उसका पोषण करता है। यह तो एक दुरभिसंधि है जो उसे
एक पुण्य कार्य होगा।
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आत्म पहचानो मत फँसो मोह मंझार । आत्म-पहचानो |टेर॥ भौतिक सुख को मानते अपने पर यह सारे झूठे सपने ॥
कहते जगदाधार । आत्म पहचानो ॥१॥ धर्म पुण्य से रहते दूरे । पाप कर्म करने में शूरे ॥
जाते नरक द्वार । आत्म पहचानो ॥२॥ धर्म ध्यान में चित्त लगाना । अपने आपको जल्दी जगाना || कहे "पुष्कर" अनगार | आत्म पहचानो ॥३॥
-उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
(पुष्कर-पीयूष से)
सन्दर्भ स्थल १. शाकाहार-मानव सभ्यता की सुबहः विश्व स्वास्थ्य संगठनः बुलेटिन नं. ६३७ २. ब्रिटेन के डॉ. एम. रॉक ३. पोषण का नवीनतम ज्ञान (डॉ. इ. बी. एमारी): रोगियों का प्रकृति (डॉ. इन्हा)
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