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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । बाणगंगा का निर्मल नीर प्रवाहित था। पशु-पक्षीगण अपनी प्यास प्रकार बिहार, आन्ध्रप्रदेश आदि स्थानों पर भी दुष्काल के कारण
बुझाने के लिए नदी के किनारे आया करते थे। शिकारी निर्दयता से हजारों-लाखों पीड़ित हुए। आपकी प्रेरणा से इन सभी मनुष्यों की ae
ते थे। आपने तनिक-विश्राम के समय वहाँ शिकारियों । भरपूर सहायता अन्न-वस्त्रादि के रूप में की गई। 100000 को आया देखा तो अपने मधुर वचनों से उन्हें समझाया कि निरीह,
सन् १९८१ में आपका वर्षावास राखी (राजस्थान) में था। उस निरपराध, भोले-भाले प्राणियों को मारना श्रेयस्कर नहीं है। उन्हें
समय राजस्थान में भयंकर दुष्काल पड़ा। चारे के अभाव में मूक किसी भी प्रकार सताना और कष्ट देना पाप है। उन क्रूर
पशु दनादन काल के ग्रास बन रहे थे। आपके पावन उपदेश के शिकारियों पर आपके मधुर वचनों का तथा दया भावना का इतना
प्रभाव से लाखों रुपयों की राशि एकत्र हो गई। उस चातुर्मास में स्थायी प्रभाव पड़ा कि उन्होंने सदा के लिए शिकार करना छोड़
सेठ रतनचंद जी, देवीचंद जी रांका ने अत्यधिक उदारता के साथ दिया।
तन-मन-धन से पूरा सहयोग किया। ___बम्बई और पूना के बीच लोनावला है। वहाँ कार्ला की गुफाएँ
इस प्रकार के प्रसंग अनगिनत हैं। हैं। कला की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं। प्राचीन युग में वहाँ सैंकड़ों बौद्ध साधक साधना किया करते थे। वहाँ एक देवी का मन्दिर भी है।
हमारे कथन का आशय यही है कि आपश्री के हृदय में दया वहाँ की कला को देखने के लिए गुरुदेवश्री एक दिन वहाँ ठहरे।
का महासागर लहराया करता था। किसी भी प्राणी को दुःखी
देखकर आप उसके दुःख-निवारण हेतु प्रेरित हो जाते थे और मध्याह्न में कुछ आदिवासी देवी के मन्दिर में बकरे की बलि चढ़ाने 100.0000 हेतु आए। गुरुदेव ने द्रवीभूत होकर उनसे कहा-निरीह बकरे का
आपके प्रभाव से जन-जन कष्ट में पड़े हुए प्राणियों के कष्टों को JODD बलिदान न करो। किन्तु वे नहीं माने तो आपने कहा-लो, तुम्हें ।
दूर करने के लिए कटिबद्ध हो जाता था। बलि ही देनी है तो मेरी दे दो।
आपका कोमल हृदय चन्द्रकान्तमणि के सदृश ही था। परदुःख दया-भावना की यह पराकाष्ठा थी।
दर्शन तो क्या, परदुःख के श्रवण मात्र से विगलित हो जाता था। इसे देखकर आदिवासियों को भी समझ आ गई। वे बोले"बाबा! आपके जैसा दयावान साधु हमने तो कभी नहीं देखा। हम
हिमशिला पर अंगारे बकरे को अभयदान देते हैं और आगे भी कभी ऐसा पाप नहीं करेंगे।"
स्वर्ण को तपाते चले जाइये, वह निखरता चला जायगा। भारत भर में फैले हुए अनेक सम्प्रदायों में अनेक लोग चींटियों
चन्दन को घिसते जाइए-सुवास बढ़ती ही जायगी। को, पक्षियों-पशुओं को आटा, अन्न, चारा आदि डालते हैं। वे अपने
इसी प्रकार सन्त कष्टों से घबराता नहीं। कष्ट तो उसके धर्म की इतिश्री इतने में ही मान लेते हैं, किन्तु लाखों और करोड़ों
जीवन को माँजते चले जाते हैं। मानव भूख से तड़फते हैं, शीत से ठिठुरते हैं, रोगों से ग्रसित होकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं। उन लाखों-करोड़ों मानवों की भलाई
लोहा-फौलाद बनता जाता है। करने की ओर बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है। आपश्री अपने आपश्री की कष्ट-सहिष्णुता एवं भाव-सहिष्णुता अद्भुत थी। प्रवचनों में यथासमय बारम्बार ऐसे अभावग्रस्त मानवों के साथ किसी भी परिस्थिति में आपको असहिष्णु होते कभी किसी ने नहीं सहयोग किए जाने की बात दुहराते थे और परिणामतः अनेक | देखा। दानवीर आगे आ जाते थे और मानव-सेवा हेतु लाखों रुपयों की
सन् १९४२ में आप कुचेरा से विहार कर नागौर पधार रहे राशि एकत्र हो जाती थी।
थे। मार्ग में मूंडवा नामक कस्बा था। वहाँ जैन गृहस्थ का एक भी सन् १९७५ का वर्षावास पूना में था। उस समय वहाँ बहुत । घर नहीं था। माहेश्वरियों के ही घर थे। एक भवन में आपने भिक्षा अधिक वर्षा हुई। झोंपड़-पट्टी में रहने वाले लोग बेघर-बार हो गए। हेतु प्रवेश किया। वह माहेश्वरी सज्जन जैन श्रमणों से परिचित पूज्य गुरुदेव ने उनकी दीन-दयनीय दशा देखी तो द्रवित हो गए। नहीं था। उसका व्यापार उड़ीसा में था। आपश्री को घर में प्रवेश अपने प्रवचन में उनकी इस दुःखद स्थिति का ऐसा मार्मिक चित्रण करते देखकर वह आग-बबूला हो गया और लगा अनाप-शनाप आपने किया कि उसी समय वहाँ पर श्री पुष्कर गुरु सहायता बकने और गालियाँ देने-चले आए बिना पूछे घर में। निकलो यहाँ संस्था की स्थापना हो गई। वह संस्था आज भी हजारों मानवों का । कल्याण कर रही है।
। सहिष्णुता की मूर्ति बोली-“सेठजी, हम जैन साधु हैं। मधुकरी सन् १९४८ में आपका वर्षावास घाटकोपर (बम्बई) में था। करते हैं। उसी के लिए तुम्हारे घर में आए हैं। गरम पानी का उस समय भयंकर तफान आया। लाखों लोग बेघरबार हो गए। इसी उपयोग करते हैं। यदि गरम पानी हो तो दे दीजिए।"
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