Book Title: Pushkarmuni Smruti Granth
Author(s): Devendramuni, Dineshmuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 700
________________ ५६४ शर्त है। इसके लिए जनसाधारण में चेतना और उसकी सामूहिक भागीदारी आवश्यक है। पर्यावरण परिरक्षण का वातावरण सारी दुनियां में बनाना भी जरूरी है। इस कार्य को धर्मगुरु तथा समाज सेवा में ईमानदारी से संलग्न स्वयंसेवी संस्थायें प्रभावी ढंग से निबाह सकती हैं। इस अभियान के लिए अगर नई पीढ़ी को स्कूल स्तर पर तैयार किया जाये तो यह दुष्कर कार्य सचमुच सुलभ हो सकता है। संसार की सुरक्षा हेतु जैन धर्म का अहिंसा-सिद्धान्त अब क्रियात्मक रूप से व्यवहार में लाना अनिवार्य है। संदर्भका १. समाज और पर्यावरण- अनु. जगदीश चन्द्र पाण्डेय प्रगति प्रकाशन, मास्को। २. "विश्व इतिहास की झलक" (भाग-२) - जवाहरलाल नेहरू : सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन, नई दिल्ली। असन्तुलन का कारण प्रकृति की व्यवस्था में हस्तक्षेप अनादिकाल से सारा संसार जड़ और चेतन के आधार पर चल रहा है। प्रकृति अपने तालबद्ध तरीके से चलती है। दिन और रात तथा वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, हेमन्त और शिशिर ये छह ऋतुएँ एक के बाद एक क्रमशः समय पर आती हैं, और चली जाती हैं। गर्मी के बाद वर्षा और वर्षा के बाद सर्दी न आए तो संसार का सन्तुलन बिगड़ जाता है; जनता में हाहाकार मच जाता है। प्रकृतिजन्य तमाम वस्तुएँ अपने नियमों के अनुसार चलती हैं, तभी संसार में सुख-शान्ति और अमन-चैन रहता है। उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ 3. Ecology and the Politics of SurvivalVandana Shiva United Nations University Press, Japan. परन्तु मनुष्य एक ऐसा प्राणी है, जो प्रकृति की इस व्यवस्था में हस्तक्षेप करता है: प्राकृतिक नियमों को जानता बूझता हुआ भी अपनी अज्ञानतावश उनका उल्लंघन करता है, और अव्यवस्था पैदा करता है। वह वैज्ञानिक प्रगति के नाम पर अथवा अपने असंयम से प्रकृति के इस सहज सन्तुलन को बिगाड़ने का खतरा पैदा करता है। इसी के फलस्वरूप कहीं अतिवृष्टि, कहीं अनावृष्टि, कहीं बाढ़ और कहीं भूकम्प तो कहीं तूफान और सूखा, ये सब प्राकृतिक प्रकोप पैदा होते हैं, इससे प्रकृति का जो सहज पर्यावरण है, उसका सन्तुलन बिगड़ जाता है। इन सब प्राकृतिक प्रकोपों के कारण लाखों आदमी काल के गाल में चले जाते हैं, लाखों बेघरबार हो जाते हैं, हजारों मनुष्य पराधीन और अभाव पीड़ित होकर जीते हैं, यह सारी विषमता और अव्यवस्था मनुष्य के द्वारा प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करने के परिणामस्वरूप पैदा होती है। कभी तो यह समुद्र 4. The State of India's Environment (1984-85): The Second Citizens Report: Centre For Science and Environment, N. Delhi. 5. Survey of the Environment 1992 : The HINDU 6. Lectures and articles of Shri Sunder Lal Bahuguna. पता : जैन धर्म और पर्यावरण सन्तुलन से.नि. एसोसिएट प्रोफेसर (जूलोजी) १०८, 'जय जवान' कॉलोनी, टोंक रोड, जयपुर (राज.) - पं. मुनिश्री नेमिचन्द्र जी महाराज (अहमदनगर) में बम विस्फोट करता है, कभी वह लाखों मनुष्यों से आबाद शहर पर बम फेंकता है; कभी वह जहरीली गैस छोड़ कर अपनी ही जाति का सफाया करने पर उतारू हो जाता है। कभी उसके द्वारा उपग्रह छोड़ने के भयंकर प्रयोगों के कारण अतिवृष्टि, आँधी, तूफान या भूस्खलन आदि प्राकृतिक प्रकोप होते हैं। प्रत्येक तीर्थङ्कर ने जीव-अजीव दोनों पर संयम की प्रेरणा दी जैन धर्म के युगादि तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर तक सबने प्रकृति के साथ संतुलन रखने हेतु तथा पृथ्वीकायिक आदि समस्त जीवों के साथ परस्पर उपकार करने हेतु संयम का उपदेश दिया है। उन्होंने जैसे जीवकाय के प्रति संयम रखने की प्रेरणा दी है, वैसे अजीवकाय (जड़ प्रकृतिजन्य वस्तुओं या पुद्गलों) के प्रति भी संयम रखने की खास प्रेरणा दी है। परन्तु वर्तमान युग का अधिकांश मानव समूह इस तथ्य को नजरअंदाज करके जीवकाय और अजीवकाय दोनों प्रकार के पर्यावरण सन्तुलन के लिए उपयोगी सजीव-निर्जीव पदार्थों के प्रति अधिकाधिक असंयम करके, अन्धाधुंध रूप से सन्तुलन बिगाड़ने का पराक्रम करके प्रदूषण फैला रहा है। अमेरिकी राष्ट्रीय विज्ञान एकादमी (१९६६) के अनुसार "वायु, पानी, मिट्टी, पेड़-पौधे और जानवर सभी मिलकर सुन्दर पर्यावरण या स्वच्छ वातावरण की रचना करते हैं। ये सभी घटक पारस्परिक सन्तुलन बनाये रखने के लिये एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं, जिसे 'परिस्थिति-विज्ञान presviong 20180

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