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पर्यावरण प्रदूषण और जैन दृष्टि
भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में अन्यतम है। इसका प्रारम्भ कब और किसके द्वारा हुआ अथवा इस संस्कृति का बीजवपन किन द्वारा हुआ, इस प्रसंग में भिन्न-भिन्न विद्वानों के भित्र-भित्र मत हैं। एक परम्परा वेदों को आदि ज्ञान मानती है और उन्हें ही भारतीय संस्कृति का मूल स्वीकार करती है। इसके विपरीत दूसरी परम्परा सृष्टि को अनादि मानकर वर्तमान संस्कृति का प्रारम्भ आदिनाथ भगवान् ऋषभदेव से मानती है।
हम प्रायः अनेकानेक प्राचीन ग्रन्थों में ऋषि-मुनि शब्दों का प्रयोग एक साथ प्राप्त करते हैं। 'ऋषि' शब्द वैदिक परम्परा के तत्त्वज्ञानियों के लिए प्रयुक्त और मुनि' शब्द जैन परम्परा में आदरणीय तत्त्वदर्शियों के लिए व्यवहृत होता है। इन दोनों शब्दों का युग्म के रूप में प्रयोग देखकर यह मानना अनुचित न होगा कि भारतीय संस्कृति के बीज वपन से लेकर अधुनातन विकास पर्यन्त दोनों परम्पराओं का समान रूप से योगदान रहा है दोनों की अपनी-अपनी मान्यताएँ इतर परम्परा में इस प्रकार प्रतिबिम्बित हुई। हैं कि उन्हें बहुत बार अलग से देख पाना सम्भव नहीं है। अतएव मैं वैदिक परम्परा में प्राप्त कुछ संकेतों को भी जैन दृष्टि से पृथक् नहीं सोच सकती।
आलेख के प्रस्तुत विषय पर्यावरण की सीमा बहुत व्यापक है। इसमें जल, वायु, पृथ्वी, आकाश (ध्वनि), ऊर्जा और मानव चेतना आदि सभी को संग्रहीत किया जाता है। भारतीय संस्कृति के प्राचीन इतिहास ग्रन्थ महाभारत में पर्यावरण के अन्तर्गत पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार इन आठ की गणना की गयी है।
वैदिक परम्परा में यु. अन्तरिक्ष, पृथिवी, जल, औषधि, वनस्पति और इनके बाद विश्वदेव नाम से पर्यावरण के अन्य अंगों की ओर संकेत किया गया है एवं इन्हें निर्दोष तथा शान्तिदायी (उपयोगी) बनाये रखने की कामना की गयी है। प्रकृति के उन तत्त्वों में विजातीय हानिकारक तत्त्वों के मिश्रण से प्रायः प्रदूषण उत्पन्न होता है, जिसे वर्तमान में पर्यावरण प्रदूषण के नाम से जाना जाता है।
आधुनिक विचारकों ने पर्यावरण प्रदूषण के सामान्यतः आठ विभाग किये हैं- १. जल प्रदूषण, २. वायु प्रदूषण, ३. मृदा प्रदूषण, ४. ध्वनि प्रदूषण ५. रेडियोधर्मी ६. जैय प्रदूषण, ७. रासायनिक प्रदूषण और ८. वैद्युत प्रदूषण पर्यावरण प्रदूषण के इस विभाजन में प्रथम तीन तो वे आधार हैं, जिनमें प्रदूषण होता है तथा शेष पांच प्रदूषण के कारण हैं। पर्यावरण प्रदूषण के इन आठ विभागों
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
-डॉ. सुषमा
में वैचारिक प्रदूषण का (मन, बुद्धि और अहंकार के प्रदूषण) का परिगणन नहीं हुआ है। यद्यपि प्रदूषण के क्षेत्र में सर्वाधिक महत्त्व इसका ही है। इसके अप्रदूषित रहने पर शेष के प्रदूषण की सम्भावना कम से कम होती है। वैचारिक प्रदूषण के अभाव से व्यक्ति निरन्तर सचेष्ट रहेगा कि उसके किसी भी व्यवहार से जल, वायु, भूमि, अन्तरिक्ष, द्यु आदि कोई भी प्रदूषित न होने पाएं। इस प्रकार वैचारिक प्रदूषण को सम्मिलित कर लेने से उसके भेदोपभेदों के कारण पर्यावरण प्रदूषण के अनेक प्रकार हो सकते हैं।
पर्यावरण प्रदूषण का नाम लेने पर स्थूल रूप से हमारा ध्यान जल, वायु, पृथ्वी, अन्तरिक्ष आदि की ओर जाता है। प्राचीनकाल में जब भारतीय संस्कृति अपने तेजस्वी रूप में प्रतिष्ठित थी, उसके फलस्वरूप जन-जन के विचारों में शुद्धता, समता, परोपकारिता आदि गुण विद्यमान थे, उस समय पर्यावरण प्रदूषण की समस्या नहीं रही है। उस काल में अग्नि, जल, बाबु पृथ्वी आदि को देवता के रूप में अथवा माता के रूप में स्वीकार किया जाता था उनको परिशुद्ध बनाये रखने के लिए समाज अत्यन्त गतिशील था।
वर्तमान समय में जब मानव विज्ञान के क्षेत्र में उन्नति करता हुआ प्रकृति और उसके अंग-पृथ्वी आदि के प्रति मातृत्व की भावना को भुला बैठा है और उस पर विजय प्राप्त करने के लिए लालायित हो उठा है, तो अनजाने ही उसके हाथों से प्रकृति के सभी अंगों का प्रदूषण प्रारम्भ हो गया है। फलतः आज प्रकृति का प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि विचारशील वैज्ञानिक प्रदूषण के प्रसंग में चिन्तित हो उठे हैं और वे अनुभव करने लगे हैं कि प्रदूषण के फलस्वरूप पृथ्वी का तापमान बढ़ने लगा है। यदि यही क्रम रहा तो सम्भावना है कि अगले २७ वर्षों के अन्दर पृथ्वी के तापमान में न्यूनतम दो डिग्री सेन्टीग्रेड की वृद्धि हो जायेगी, परिणामतः हिम पिघलकर जल के रूप में समुद्रों में इतना पहुँचेगा कि मालद्वीप जैसे द्वीप समुद्र की गोद में समा जायेंगे भारत, बांगला देश और मिश्र जैसे समुद्रतटीय देशों का अस्तित्व भी संदिग्ध हो जायेगा। विगत कुछ वर्षों में भी इस उष्णतावृद्धि के फलस्वरूप जो समुद्री तूफान बार-बार आये हैं, उनमें १९६३ में २२००, १९६५ में ५७००, १९७० में ५०,००० और १९८५ में 90,000 व्यक्ति अपना जीवन खो बैठे हैं। २९-३० नवम्बर १९८८ का तूफान भी प्रलयकारी रहा है। इनके अतिरिक्त अन्य छोटे-बड़े तूफानों में भी जो धन-जन की हानि हुई है, वह अत्यन्त भयावह तथा चौंकाने वाली है।
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