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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
कैसा हो हमारा आहार
-आचार्य राजकुमार जैन हम प्रतिदिन जो कुछ खाते-पीते हैं वह आहार कहलाता है। वह (१) शरीर में होने वाली विभिन्न प्रकार की क्षति की पूर्ति
आहार प्राणिमात्र के जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक है, क्योंकि करना और उसके विकास में सहायता प्रदान करना। 1200 वह आहार हमारे शरीर की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति ही
(२) ताप या शक्ति उत्पन्न करना। FROD900 नहीं करता है उस आहार के द्वारा शरीर का भरण-पोषण होता है, 5D अतः वह शरीर के स्वास्थ्य की रक्षा और स्वास्थ्य संवर्धन का मुख्य
(३) उपर्युक्त दोनों क्रियाओं का नियन्त्रण करना। आधार है। यह एक स्वतः स्थापित तथ्य है कि कोई भी मनुष्य इनमें से प्रथम कार्य मांसतत्व (प्रोटीन), खनिज लवण (साल्ट) * खाए बिना जी नहीं सकता और जब जी नहीं सकता तो कुछ कर एवं जल के द्वारा निष्पन्न होता है। दूसरा अर्थ वसा (फैट) और
नहीं सकता। अत: कुछ करने के लिए जीना आवश्यक है और शाकतत्व (कार्बोहाइड्रेट) के द्वारा पूर्ण होता है और तीसरा कार्य 000000 जीने के लिए आहार ग्रहण करना आवश्यक है। इससे यह स्पष्ट है जीवनीय तत्व (विटामिन्स) तथा खनिज लवण सम्पादित करते हैं। 1 0.6 कि मनुष्य को अपने जीवन निर्वाह के लिए आहार की अपेक्षा है।
शरीर की क्रियाशीलता के लिए शरीर में स्थित मांस पेशियाँ 100280 आहार का हमारे शारीरिक स्वास्थ्य से गहरा सम्बन्ध है। सदैव चेष्टावान् रहती हैं जिससे शरीर में सदैव शक्ति का क्षय होता
- क्योंकि प्रतिदिन हम जो कुछ खाते हैं पीते हैं वह हमारे शरीर में रहता है। अतः इस क्षति की पूर्ति के लिए नित्य नूतन आहार द्रव्यों NERHOO207 पहँचकर शरीर के पाचन संस्थान, शरीर में स्थित अवयवों की की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त शरीर के विकास काल 1666 क्रियाओं तथा रस-रक्त मांस आदि धातुओं को अनुकूल या प्रतिकूल में भी शरीर के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक पोषक तत्वों
ROOPO रूप से प्रभावित करता है। इससे स्पष्ट है कि हमारे जीवन निर्वाह 1 की पूर्ति एवं शक्ति खाए हुए आहार से ही प्राप्त होती है। अतः HOORD के लिए आहार की अपेक्षा है जो हमारे शरीर और शारीरिक | शरीर शास्त्र की दृष्टि के उपयुक्त आहार वही है जो शरीर में (१) 885 स्वास्थ्य के संरक्षण और संवर्धन का मुख्य आधार है।
आवश्यक परिमाण में शक्ति उत्पन्न करें, (२) नित्य प्रति होने वाली PODISA आहार का प्रभाव केवल शरीर पर ही नहीं पड़ता है, अपितु
क्षति की पूर्ति एवं शरीर के विकास के लिए आवश्यक उपादानों
(पोषक तत्वों) की पूर्ति करे तथा (३) शरीर में होने वाली विभिन्न POS मन और मस्तिष्क भी उससे अपेक्षित रूप से प्रभावित होते हैं।
रासायनिक क्रियाओं का नियन्त्रण करे। 68 क्योंकि हमारे द्वारा ग्रहण किए गए आहार से केवल शरीर का ही DB पोषण नहीं होता है, अपितु मन और उसकी क्रियाओं पर भी हमारे शरीर की विभिन्न क्रियाओं के संचालन के लिए तथा 000 उसका पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। अतः शरीर के साथ-साथ मन भी
शारीरिक स्वास्थ्य संरक्षण के लिए जो आहार तत्व हमारे लिए 1600 स्वस्थ रहे-यह हमारे लिए महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त मस्तिष्क
आवश्यक हैं तथा आवश्यकतानुसार हमारे भोजन में समावेश होना 100 की रासायनिक क्रियाएँ भी हमारे शरीर और मन को प्रभावित
आवश्यक है। सामान्यतः प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, स्नेह (वसा), लवण, 8 करती हैं। दूसरी ओर मस्तिष्क की रासायनिक प्रक्रिया हमारे द्वारा
क्षार, लौह और जीवनीय तत्व (विटामिन्स) ये हमारे आहार के गृहीत भोजन में विद्यमान विभिन्न तत्वों से प्रभावित होती है। इस
सामान्य तत्व हैं। शरीर के पोषण, संवर्धन और संरक्षण के लिए TROOPS अर्थ में आहार मात्र शरीर का ही पोषण नहीं करता है, उससे मन
हमारे दैनिक आहार में आवश्यकतानुसार उचित मात्रा में इनका DS और मस्तिष्क को भी पोषण तत्व प्राप्त होते हैं। आहार की
समावेश होना सन्तुलित भोजन माना जाता है। यदि शरीर को यथा DD8% उपयोगिता बतलाते हुए आयुर्वेद शास्त्र में आहार को शरीर के
समय इन तत्वों की आपूर्ति होती रहती है तो शरीर स्वस्थ, निरोग BED बल, वर्ण और ओज का मूल प्रतिपादित किया गया है-“प्राणिनां ।
और क्रिया करने में सक्षम बना रहता है। 00% पुनर्मूलमाहारो बलवीजतां च।"
आहार की मात्रा आयुर्वेद में आहार की परिभाषा बतलाते हुए कहा गया है- आहार की मात्रा मनुष्य की अग्नि (पाचकाग्नि) के बल की
"आहियते अन्ननलिकया यत्तदाहारः।" अर्थात् अन्न नलिका (मुख अपेक्षा रखती है, जैसा कि आयुर्वेद शास्त्र में प्रतिपादित है2006 मार्ग) से जो कुछ ग्रहण किया जाता है वह आहार है। इस विषय में / “मात्राशी स्यात्। आहारमात्रा पुनरग्निबलापेक्षिणी।" इसका आशय 1000000 आधुनिक शरीर क्रिया विज्ञान की दृष्टि से पर्याप्त विचार किया यह है कि आहार की जो मात्रा भोजन करने वाले मनुष्य की
2068 गया है। तदनुसार आहार उस द्रव्य को कहते हैं जो पाचन नलिका प्रकृति में कोई बाधा नहीं पहुँचाते हुए यथा समय पच जाय वही 12022 (आंत्र) के द्वारा शरीर में शोषित होकर निम्न कार्यों को सम्पन्न । उस व्यक्ति के लिए अभीष्ट एवं प्रामाणित मात्रा है। इसे और PORD करता है :
अधिक स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया है-“मात्रां खादेद
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