Book Title: Pushkarmuni Smruti Granth
Author(s): Devendramuni, Dineshmuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

View full book text
Previous | Next

Page 724
________________ ८५८८ ४. मानव मूल्य पर्यावरण-परम्परागत जीवन पद्धति, धार्मिक स्तर आर्थिक आधार, सामाजिक संरचना, शिक्षा, जनस्वास्थ्य, पर्यटन और जनसंख्या । पर्यावरण अविभाज्य है, इसका यह विभाजन कृत्रिम है, क्योंकि पर्यावरण के विभिन्न घटक परस्पर अन्तर्क्रिया करते हैं। इस अन्तर्क्रिया का अध्ययन ही पर्यावरणीय शिक्षा है। पर्यावरणीय शिक्षा में प्राकृतिक विज्ञान तथा सामाजिक विज्ञान की विषय वस्तु का वर्तमान परिवेश में समन्वय है। यह विषय पर्यावरण के स्वरूप, उसको प्रभावित करने वाले विभिन्न कारकों तथा उसके समाधान को सुझाता है। इसीलिए निकल्सन (१९७१) ने कहा है- " आज ज्ञान का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो, जो 'पर्यावरणीय क्रांति' से अप्रत्यक्षतः प्रभावित न हो।" पर्यावरणीय शिक्षा में जैव भौतिकीय एवं सामाजिक वातावरण की मानव जीवन के साथ अन्तर्क्रिया का अध्ययन किया जाता है, इसलिए इसका पाठ्यक्रम निर्धारित करते समय हमें पर्यावरण के सभी पक्षों को इसमें सम्मिलित करना होगा, जैसे- प्राकृतिक एवं मानवनिर्मित प्रौद्योगिक एवं सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, नैतिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक तथा सौन्दर्यपरक पर्यावरणीय शिक्षा प्राथमिक स्तर से प्रारम्भ होकर जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया अपेक्षित है, क्योंकि यह पर्यावरणीय समस्याओं की रोकथाम एवं समाधान की दिशा में जनसामान्य को सक्रिय सम्भागीत्व हेतु तत्पर करती है।. पर्यावरणीय शिक्षा की वर्तमान में सर्वाधिक आवश्यकता इस शताब्दी में विज्ञान व तकनीकी के अतिशय विकास स्वरूप | मानव ने प्रकृति पर पर्याप्त नियंत्रण पा लिया है। उद्योग, वाणिज्य और कृषि के क्षेत्र में एक आर्थिक क्रान्ति का सूत्रपात हुआ है। औद्योगीकरण द्वारा जहाँ एक ओर मानव जीवन को सुख सविधा सम्पन्न बनाया जा रहा है, वहाँ दूसरी ओर आज विश्व औद्योगीकरण के कारण उत्पन्न पर्यावरणीय खतरों के विनाशकारी प्रभावों को झेल रहा है। आज विश्व में जनसंख्या वृद्धि, औद्योगीकरण और परमाणु ऊर्जा के कारण पर्यावरण पर सीधा प्रहार हुआ है, फलतः वनों की अन्धाधुन्ध कटाई, मिट्टी का कटाव, कम वर्षा, दुर्भिक्ष, नगरों में आबादी की सघनता, स्वचालित वाहनों की अभिवृद्धि, जल-मल निकासी की दोषपूर्ण प्रणाली, रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों के उपयोग, वन्य जीवों के प्रति उपेक्षाभाव, वाष्प एवं शोर प्रदूषण, | परमाणु विस्फोटों से उत्पन्न विकिरणों से उत्पन्न खतरे सम्पूर्ण विश्व सभ्यता को निगलने के लिए तत्पर खड़े प्रतीत हो रहे हैं। इस पर्यावरणीय संकट को दूर करने के लिए कोई पूर्णतया वैज्ञानिक या तकनीकी समाधान संभव नहीं है। अतः इसके लिए शिक्षा द्वारा सामाजिक संचेतना उत्पन्न करना ही आज की आवश्यकता है। उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ औपचारिक के साथ-साथ अनौपचारिक तथा निरोपचारिक शिक्षा की आज उतनी ही आवश्यकता है। विभिन्न प्रकार के धार्मिक संगठन अपने आदर्शों के साथ-साथ पर्यावरण शिक्षा भी आसानी से देकर जनसमुदाय को लाभान्वित कर सकते हैं। कई पर्यावरण ऐसे हैं, जो व्यक्ति स्वयं बनाते हैं। इसके सबसे सामान्य उदाहरण रहने और काम करने के आवास है। अपनी उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए ही ये बनाये जाते हैं जब लोगों की संख्या तेजी से बढ़ती है अथवा औद्योगीकरण में तेजी आती है, तब पर्यावरण का परिस्थितिगत सन्तुलन बिगड़ जाता है। घर आसपास बनने से, उद्योगों के लिए पेड़ों को काटने और औद्योगिक रासायनिक अवशिष्टों को बिना सूझबूझ के पानी में छोड़ देने से पर्यावरण के प्राकृतिक साधन विकृत हो जाते हैं। जैसे-जैसे जनसंख्या तेजी से बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे असंतुलन के कुप्रभाव प्राकृतिक और भौतिक पर्यावरणों पर भी दिखाई देने लगते हैं। इनमें से कुछ निम्न लिखित हैं १. ऑक्सीजन का मनुष्य और उद्योगों द्वारा उपयोग होने से वायु दूषित होने लगती है, पेड़ पौधों की कमी से भी ऑक्सीजन नहीं बनती है। तेजी से चलने वाले यातायात के साधनों का धुँआ पर्यावरण को और भी दूषित करता है। २. हरे भरे क्षेत्रों और जंगलों को आवास तथा उद्योग मिल जाते हैं तथा खेती के लिए जमीन नहीं रहती हैं। ३. बस्तियाँ, उद्योग, रेल की पटरियाँ और सड़कें खाली स्थान नहीं छोड़तीं। ४. औद्योगिक और मानवीय अवशिष्ट से जो दूषण होता है, वह नदियों व नहरों को खराब कर देता है। ५. पर्यावरण की ऊपरी सतह धुएँ, धूल और उद्योग धन्धों से बनने वाले कोहरे से ढक जाती है तथा मनुष्य को दूषित जिन्दगी जीने पर मजबूर होना पड़ता है। शहरी आबादियों का यह सामान्य अनुभव है, कि वह नगरों को गंदी बस्तियों में परिवर्तित होते देखते हैं और गंदी बस्तियों को गंदगी में नागरिक सुविधाएँ कम पड़ जाती हैं पीने का पानी मुश्किल से मिलता है। गंदगी और कूड़े को सही ढंग से किनारे न लगाना समस्याएँ पैदा करता है। आवास, बिजली, यातायात के साधन, खाद्य पदार्थों का संभरण सभी में कमी होती है। यदि स्वास्थ्य खराब करने वाली स्थितियाँ चलती रहें तो हवा और पानी दूषित हो जाते हैं हवा और पानी के दूषण से बीमारी का खतरा बना रहता है। गंदी बस्तियों में रहने वाले लोग हमेशा रोगाणुओं और संक्रामक बीमारियों के जोखिम में जीते हैं। विशेषकर हवा से आने वाली बीमारियाँ घनी बस्तियों में खूब फैलती हैं। इनमें से कुछ सांस लेने के अवयवों से सम्बन्धित हैं। इन रोगों में सबसे सामान्य है

Loading...

Page Navigation
1 ... 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844