Book Title: Pushkarmuni Smruti Granth
Author(s): Devendramuni, Dineshmuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 721
________________ जन-मंगल धर्म के चार चरण हिंसा की इस भावना से मनुष्य की मनोवृतियाँ दूषित हुईं। दया का तत्त्व ही अदृश्य हो गया। पशु वध करते-करते उसकी क्रूरता इतनी बढ़ी कि वह मानव-हत्या करने में भी 'नहीं' हिचकिचाया। परस्पर प्रीत करने वाला मानव बड़े-बड़े युद्धों का जनक बना। आज विश्व का मानवतावादी संतुलन इसी हिंसात्मक युद्ध की परिस्थिति के कारण है। पर्यावरण की असंतुलिता का दूसरा कारण बढ़ती हुई जनसंख्या है। यदि हमने जैनधर्म के महत्त्वपूर्ण अंग 'ब्रह्मचर्य' का 'अणुरूप' भी पालन किया होता तो इस परिस्थिति का निर्माण नहीं होता। पश्चिमी भौतिकवाद एवं काम विज्ञान की अधूरी समझ, हिंसात्मक भोजन ने मनुष्य की वासनायें भड़काई। वह कामांध बन गया। परिणाम बड़ा विस्फोटक हुआ। आज यह जनसंख्या का विस्फोट बम विस्फोट से अधिक भयानक है। बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण मनुष्य को निवास, खेती, उद्योग के लिए अधिक भू-भाग की आवश्यकता पड़ी। मनुष्य यह भूल गया कि वनस्पति आदि पंचास्तिकाय जीव भी प्रकृति के वैसे ही अंग है जैसा वह है अपने रहने के लिए उसने जंगलों को काटना शुरू किया। जंगल सिमटते गये। जहाँ कभी घने जंगल थे- पशु-पक्षी थे वहाँ आज खेत या मनुष्य के रहने के घर-नगर बस गये। जंगल सिकुड़ गये। इसी प्रकार ईंधन के लिए उसने आँखें बन्द करके वृक्षोच्छेदन किया। यह भूल गया कि हमारे कार्बनडाइ ऑक्साइड को पीकर वे हमें ऑक्सीजन देकर प्राणों में संचार भरते थे। यह भूल गया कि हमारे पानी के यही संवातक थे। भूस्खलन इनसे रुकता था। हरियाली, शुद्धता एवं सौन्दर्य के ये प्रतीक थे। बस जंगल कटे और आफत आई आज देश में ही नहीं ● विश्व में पीने के पानी की समस्या है। आये दिन होने वाला भूस्खलन, भूकम्प, बाढ़ इन्हीं के परिणाम हैं। पानी खूब गहराई में उतर गया है। ऋतुओं का संतुलन बिगड़ गया है। यदि हमने वृक्ष काटने को पाप और दुख का कारण माना होता तो यह आत्मघाती कार्य हम कभी न करते। खेती में हमने पेस्टीसाइड्स द्वारा उन जीवों की हत्या की जो फसल को थोड़ा खाकर अधिक बचाते थे। कीड़े तो मार दिये पर उनका विष नहीं मार सके। वैज्ञानिक परीक्षण से सिद्ध हुआ है कि बार-बार ऐसी दवायें मानव रक्त में जहरीलापन भर देती हैं। यही कारण है कि विश्व के समृद्ध या विकसित देशों ने इनका उत्पादन बंद कर दिया है जबकि हम उसके उत्पादन को अपना गौरव मान रहे हैं। भय तो इस बात का है कि एक दिन इनके कारण भूमि की उर्वरकता ही नष्ट न हो जाये तात्पर्य कि जंगलों की कटाई ने भूमि के संतुलन को बिगाड़ दिया और जहरीली खाद ने भूमि की उर्वरकता पर प्रहार किया। बड़े-बड़े उद्योग धंधे भी प्रदूषण उत्पन्न कर पर्यावरण को विषाक्त बना रहे हैं। हम प्रौद्योगिकी के विकास के सुनहरे चित्र ५८५ प्रस्तुत कर रहे हैं पर यह भूल गये कि विद्युत उत्पादन, अणुरीएक्टर के रजकण, ईंधन के विविध प्रयोग (पेट्रोल-डीजलकेरोसीन) कितना प्रदूषण फैला रहे हैं कारखानों का धुआ आकाशीय वातावरण को प्रदूषित कर रहा है तो उनका गंदा पानी नदियों के जल को प्रदूषित बना चुका है। इससे असंख्य जलचर जीव जो पानी को फिल्टर करते थे उनका विनाश हो रहा है। हमारी पवित्र नदियों, झीलें, सरोवर आज प्रदूषित हो गये हैं। गैस उत्पादक कारखाने तो हमारे पड़ोस में बसने वाली साक्षात् मौत ही है। भोपाल का गैस कांड या चार्नोबिल का अणुरिसाव हमारी शताब्दी की सबसे बड़ी त्रासदी है। सच तो यह है कि वर्तमान में फैल रहे रोगों का मूल यह प्रदूषित जल एवं हवा ही है। विकसित देश चालाकी से ऐसे मानवसंहारक कारखाने अपने यहाँ नहीं लगाते वरन् उन अविकसित देशों में लगाते हैं जहाँ मानव संहार का मानों कोई मूल्य ही नहीं। फिर ऐहसान तो यह जताते हैं कि वे हमारी प्रगति के कर्णधार हैं। यदि ऐसे कारखाने फैलते गये तो यह प्रदूषित वातावरण ही इस सृष्टि के विनाश हेतु प्रलय सिद्ध होगा। जैनदृष्टि से इन तथ्यों पर विचार करें तो हम कह सकते हैं कि यदि अहिंसा और अपरिग्रह का सिद्धान्त लागू किया जाये तो मनुष्य पैसे कमाने और संग्रह की होड़ से बच सकता है। वह आवश्यक जीवनयापन की सामग्री की उपलब्धि तक अपने आपको सीमित कर देगा। फिर वह उन उत्पादनों द्वारा संसृति का विनाश नहीं होने देगा। धन की लालसा चाहे व्यक्ति की हो या देश की उसके कारण ही ये जहरीले धंधे किए जा रहे हैं। इसी प्रकार जैनदर्शन का सह अस्तित्त्व का सिद्धांत यदि समझा जाये, प्रत्येक प्राणी के साथ मैत्री का भाव उदय हो तो फिर हम ऐसा कोई कार्य नहीं करेगे जो जीवहिंसा एवं प्रकृति को विकृत करता हो। मनुष्य ने अपने स्वार्थ के कारण प्रकृति के वैज्ञानिक संतुलन जिसमें पदार्थ विज्ञान, रसायन विज्ञान एवं जीवविज्ञान का समावेश है उसके साथ भी खिलवाड़ किया। परिणाम स्वरूप 'ऑजोन' की परत भी आज छिद्रयुक्त बन रही है जो भीषण विनाश का संकेत है। वास्तव में थोड़ी सी दृश्य सुविधा के लिए हमने पृथ्वी के स्वरूप पर बलात्कार ही किया है। वैज्ञानिकों का स्पष्ट मत है कि यदि ऐसी ही मनमानी होती रही तो शताब्दी के अंत तक लाखों जीवों की प्रजातियाँ ही नष्ट हो जायेंगी। जिससे पर्यावरण में असंतुलन हो जायेगा। आल्बर्ट स्वाइट्जर के शब्दों में- "मानव आज अपनी दूरदर्शिता खो बैठा है जिससे वह सृष्टि को विनाश की ओर ले जायेगा।" यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि विकास की आड़ में हम विनाश को आमंत्रित कर रहे हैं। यदि हम चाहते हैं कि इस विनाश को रोकें तो हमें प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करना होगा। पर्यावरण की इस सुरक्षा या विनाश का आधार हमारी जीवन शैली से भी जुड़ा हुआ है। यदि हम जैन जीवन शैली अपनायें तो अवश्य इसकी सुरक्षा में एक कदम बढ़ाया जा सकता है। जैनों की

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