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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ रासायनिक अस्त्रों, जिनमें एटम बम, हाइड्रोजन बम इत्यादि प्रमुख में लोभ, मोह, क्रोध अथवा संकीर्ण स्वार्थ लिप्सा से जो प्रदूषण हैं, का पर्यावरण के प्रदूषण में अतिशय महत्त्व है। द्वितीय महायुद्ध होता है, उसे वैचारिक प्रदूषण कहते हैं। यह वैचारिक प्रदूषण ऊपर
में प्रत्यक्षतः हिरोशिमा और नागासाकी में किये गये अणुबम के वर्णित अन्य प्रकार के प्रदूषणों का जनक अथवा संवर्धक है। PORA
प्रयोग से जो पर्यावरण का प्रदूषण हुआ और उसके फलस्वरूप जो वैचारिक प्रदूषण के चार चरण माने जा सकते हैं-(i) अशुभचिंतन नरसंहार आदि हुआ, उसे आज ४८ वर्षों के बाद भी भूलना। (ii) अभिनिवेश (आग्रह, पूर्वाग्रह और कदाग्रह) (iii) ईर्ष्या-द्वेष सम्भव नहीं है। ध्यातव्य है कि इस अणु विस्फोट के कारण प्राणियों / और उससे उत्पन्न चरित्र हनन की कुत्सित प्रवृत्तियां तथा (iv) के गुणसूत्रों में जो असंतुलन पैदा हुआ है, उससे आज भी अपंग वैचारिक प्रदूषण मुक्त लोक जीवन। सन्तानें जन्म ले रही हैं। प्रत्यक्ष प्रयोगों के अतिरिक्त इन अस्त्रों के
(i) अशुभचिन्तन-मानव के हृदय में अनेक बार असीम निर्माण के उद्देश्य से किये गये विविध प्रकार के भूमिगत अथवा
ब्रह्माण्ड के साथ तादाम्य की भावना तिरोहित हो जाती है और वायुमण्डलीय परीक्षणों से जो रेडियोधर्मिता उत्पन्न होती है, उसकी
संकीर्ण स्वार्थ उसे घेरने लगते हैं। इस संकीर्ण स्वार्थ के फलस्वरूप विभीषिका भी कम नहीं है।
उसके हृदय में विविध प्रकार के अशुभ भावों का उदय होता है। इस प्रकार पर्यावरण का अम्लीकरण, नदियों के जल का इन अशुभ भावों में मुख्य है-लोभ, मोह और क्रोध। इनका उदय 20 . प्रदूषण, वायु में कार्बनडाइऑक्साइड, कार्बनमोनोऑक्साइड आदि इन्द्रियों के विषयों के चिन्तन से होता है। इसीलिए जैन परम्परा में
गैसों का मिश्रण प्राणिमात्र के लिए भयावह हो उठा है। पर्यावरण विषयचिन्तन और विषय-कथा को भी तिरस्करणीय माना गया की इस भयावह स्थिति की ओर न केवल वैज्ञानिकों अपितु विविध है।२० वस्तुतः विषयों का चिन्तन होते ही उनके प्रति आसक्ति राष्ट्रों के राष्ट्राध्यक्षों का भी ध्यान गया है और वे चिन्तित हो उठे } उत्पन्न होने लगती है। आसक्ति का जन्म कामना की सृष्टि करता है, हैं। इस चिन्ता के फलस्वरूप गतवर्ष (१९९२) में स्टाकहोम में | कामना की पूर्ति सदा होती रहे, यह आवश्यक नहीं है। काम्य वस्तु सम्पन्न पृथ्वी सम्मेलन में विकसित विकासशील और अविकसित के मिलने पर भी उसके उपभोग का अवसर मिल ही जाये, यह भी
देशों के १२० से अधिक राष्ट्राध्यक्षों ने भाग लिया, अपनी चिन्ताएं । आवश्यक नहीं है। दोनों ही परिस्थितियों में कामी के हृदय में 8 प्रकट की और उनके निवारण क लिए कुछ सिद्धान्त भी निर्धारित प्रतिबंधक व्यक्ति, परिस्थिति अथवा भाग्य के प्रति क्रोध सहज ही
किये। इस सम्मेलन के पूर्व भी १९७०, ७२, ७६, ७७, ८६, ८८, } आ जाता है। क्रोध विचारशीलता का शत्रु है, अतः क्रोध का जन्म 1000 ८९ में अनेक सम्मेलन पर्यावरण प्रदूषण के चिन्ता के फलस्वरूप ही होने पर विचारशीलता का प्रतिपक्षी संमोह सहजभाव से प्रकट होता
हुए हैं और प्रदूषण रोकने के लिए कुछ न कुछ संकल्प भी उनमें है और वह विवेक को नष्ट कर देता है। विवेक-नाश का अर्थ है लिये गये हैं। पर्यावरण प्रदूषण से सुरक्षा के लिए सभी देशों के सर्वनाश।२१ अविवेकी व्यक्ति कभी हिंसा में प्रवृत्त होता है, कभी शासनतंत्र ने अपने-अपने यहाँ समय-समय पर अनेक नियम- छल-छद्म करता है, कभी उसमें लम्पटता जन्म लेती है और अधिनियम बनाये। उदाहरणार्थ, भारत में १९०५ में औद्योगिक विविध प्रकार के परिग्रहों की कामना भी बुद्धिनाश के प्रदूषण निरोध अधिनियम, १९४८,१९७६ में कारखाना संशोधन परिणामस्वरूप होती है।२२ इस प्रकार विषयों का चिन्तन लोभ, अधिनियम, १९६८ में कीटनाशी अधिनियम, १९७४ में जल 1 मोह, क्रोध आदि के माध्यम से सर्वनाश का कारण बन जाता है। प्रदूषण नियंत्रण कानून, १९७५, ७७ में जल प्रदूषण अधिनियम, वह सर्वनाश अपना ही नहीं कई बार समाज और राष्ट्र का भी हो १९७८, ८१ में वायु प्रदूषण अधिनियम, १९७२ में वन्यजीवन । सकता है। विषय-चिन्तन से लेकर बुद्धिनाश तक की जो विविध संरक्षण कानून, १९७४ में वन्यप्राणी संवर्धन कानून और १९८१ । मानसिक स्थितियां हैं, वे सभी वैचारिक प्रदूषण कही जाती हैं। में वनसंरक्षण कानून आदि बनाये गये।
आज के समाज में मूलबद्ध हो रहा भ्रष्टाचार वैचारिक प्रदूषण इसके साथ ही १९४८ में बनाये गये संविधान में स्वीकृत का ही दुष्परिणाम है। इसी से उत्पन्न असन्तोष विस्फोट के रूप में संकल्पों को आधार बनाकर उच्च और उच्चतम न्यायालयों ने आतंकवाद के नाम से समस्त विश्व को पीड़ित कर रहा है। विविध अनेक निर्देश दिये, जिससे पर्यावरण की सुरक्षा हो सके। इसी राष्ट्रों के परस्पर संघर्ष वैचारिक प्रदूषण की ही सृष्टि हैं। युद्ध की प्रकार फ्रांस, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, कनाडा, अमेरिका आदि विश्व तैयारियां, उसमें विजय के लिए विविध प्रकार के पारम्परिक, के अन्य देशों के न्यायालयों ने भी ऐसे अनेक महत्त्वपूर्ण निर्णय आणविक अथवा रासायनिक शस्त्रास्त्रों की होड़ इसी वैचारिक दिये, जो पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने के लिए विशेष महत्त्व प्रदूषण का परिणाम है। रखते हैं।
जैन आचार्यों ने सब प्रकार के पर्यावरण प्रदूषणों के मूल रूप वैचारिक प्रदूषण-जल, वायु, मृदा, ध्वनि आदि प्रदूषण स्थूल । इस अशुभ चिन्तन रूप वैचारिक प्रदूषण को देखा था और उससे पंचभूतों में होते हैं किन्तु अष्टधा प्रकृति में से मन, बुद्धि, अहंकार । बचने के लिए श्रावकों के लिए अणुव्रत के रूप में और मुनिजनों
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