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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ होता है। इससे कैंसर जैसे असाध्य रोग हो जाते हैं जिनका हमें ध्वनि-विस्तारक यंत्रों के उपयोग से कोलाहल के केन्द्र बनते जा रहे बहुत समय तक पता ही नहीं लगता। विकिरणों से हमारी पूरी तरह मुक्ति भी नहीं हो सकती; क्योंकि प्राकृतिक स्रोतों से प्राप्त
पृथ्वी पर पेयजल के रूप में जितना पानी उपलब्ध है, वह कुल विकिरणों से हम नहीं बच सकते। हमारे कुल विकिरणीय उद्भासन
जल का मुश्किल से एक प्रतिशत है। उसका भी हम न केवल में ८० प्रतिशत योगदान प्राकृतिक स्रोतों का होता है। अन्तरिक्ष से
बेरहमी से दुरुपयोग कर रहे हैं, वरन् नदियों और जलाशयों में प्राप्त कास्मिक किरणें तथा पृथ्वी में मिलने वाले रेडियोएक्टिव
रासायनिक निस्सरण, रंग-रोगन, मल-मूत्र, मृत शरीर व उनकी पदार्थों से निकलने वाली किरणें प्राकृतिक विकिरणों के प्रमुख स्रोत
राखादि जैसी गन्दगी डालकर उसे पीने के अनुपयुक्त बना रहे हैं। हैं। इनमें भी रेडोन नाम की गैस से सर्वाधिक उद्भासन (कुल
हमारी प्रवंचना और पाखण्ड तो देखिये-हम गंगा को गंगा मैया प्राकृतिक उद्भासन का दो तिहाई) होता है, और यह गैस चट्टानों
कहकर पूजते तो हैं, लेकिन साथ ही उसमें हर प्रकार की गन्दगी (पत्थर) व सीमेंट-कोंक्रीट आदि से निकलती है। आजकल आम
डालकर उसके उत्तम जल को अति कलुषित करने से चूकते भी तौर पर हम इन्हीं के बने पक्के मकानों में रहते हैं, फिर भला
नहीं हैं। आयनकारी विकिरणों से कैसे बचा जा सकता है?
पर्यावरण परिरक्षण-विज्ञान और तकनीकी ने हमें अपने जहाँ तक मानव-कृत विकिरणों का प्रश्न है, उनमें भी
जीवन को सुखी और सुविधापूर्ण बनाने के साधन उपलब्ध कराये चिकित्सा के काम में आने वाली विकिरणों से हमारा सबसे अधिक
हैं। जनकल्याण व आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विज्ञान का सामना होता है। आजकल आवश्यक-अनावश्यक रूप से एक्स रेज
सदुपयोग करते हुए मानव-जाति ने १९वीं और २०वीं शताब्दी में और गामा रेज का रोग-निदान तथा चिकित्सा हेतु जितना व्यापक
अद्भुत उपलब्धियां प्राप्त की। विज्ञान की रचनात्मक क्षमता में उपयोग हो रहा है, क्या निकट भविष्य में उस पर विवेक-सम्मत
अपार विश्वास व्यक्त करते हुए इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध विचारक टी. नियंत्रण पाना सम्भव हो सकेगा? मानवकृत विकिरणों के दो अन्य
एच. हक्सले ले कहा था कि वैज्ञानिक ज्ञान के विवेकपूर्ण उपयोग स्रोत और हैं-परमाणु बमों के परीक्षण तथा परमाणु विद्युत गृहों से
से नरक को भी स्वर्ग में बदला जा सकता है। इसीलिए फ्रांस के प्राप्त रेडियो एक्टिव पदार्थ। सौभाग्य से परमाणु बमों के परीक्षण
महान् मानववादी वैज्ञानिक लुई पास्टर ने अपने देशवासियों से का सिलसिला लगभग समाप्त हो गया है तथा परमाणु बिजली घरों
अपील करते हुए कहा था कि-"मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि से प्राप्त विकिरणशील पदार्थों की मूल समस्या उनके रख
आप उन पवित्र स्थानों में, जिन्हें प्रयोगशाला कहा जाता है, रुचि रखाव उपयुक्त ढंग से उनके विसर्जन के तौर तरीकों से सम्बन्धित
लीजिये। वहाँ मानवता दिन-प्रदिदिन बड़ी होती है, अच्छी होती है, है। वैसे भी जितना प्रचार है, इन स्रोतों से उतनी हानि की आशंका
शक्तिशाली होती है। हमारे अन्य कार्य तो प्रायः बर्बरता, धर्मान्धता नहीं है। हाँ, उनका अधिक प्रसार भविष्य में बड़ी समस्या उत्पन्न
एवं विनाशकारी होते हैं। लेकिन विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण । कर सकता है।
के प्रबल पक्षधर पं. जवाहरलाल नेहरू उसके नकारात्मक पक्ष के पर्यावरण प्रदूषण के, जिससे उसका तेजी से निम्नीकरण हो । प्रति आशंकित भी थे। उन्होंने "विश्व-इतिहास की झलक" में उस रहा है अन्य और भी पक्ष हैं। पूर्व उल्लेखित हानिकारक गैसों के आशंका को व्यक्त करते हुए लिखा है- "ज्ञान का पूरा लाभ हम अतिरिक्त कारखानों, वाहनों, बिजली घरों आदि से वायुमण्डल
तभी उठा सकते हैं जब यह सीखलें कि उसका उचित उपयोग क्या सल्फर-डाइ ऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइडस, कार्बन मोनो- है। अपनी शक्तिशाली गाड़ी को बेतहाशा दौड़ाने से पहले यह जान ऑक्साइड, बेन्जो पाइरिन, पदार्थ के प्रलंबित कणों आदि की मात्रा लेना चाहिए कि हमें किधर जाना है। आज अनगिनती लोगों के में भी निरन्तर वृद्धि हो रही है, जिसके कारण विभिन्न प्रकार के
दिलों में ऐसी कोई धारणा नहीं है और वे इसके बारे में कभी श्वसन रोगों, एनीमिया, क्षयरोग, नेत्र रोग व कैंसर आदि की चिन्ता ही नहीं करते। होशियार बन्दर शायद मोटर गाड़ी चलाना आवृत्ति बढ़ती जा रही है। सल्फर और नाइट्रोजन के ऑक्साइडों
सीख जाय, पर उसके हाथ में गाड़ी दे देना खतरे से खाली नहीं की वायुमण्डल में अधिक मात्रा न केवल मनुष्य वरन् अन्य सभी
है।" और आखिर हो यही रहा है। प्राणियों तथा पेड़-पौधों के लिए भी हानिकारक होती है। बड़े-बड़े हम ज्ञान-विज्ञान का उपयोग भूख, गरीबी, अशिक्षा, आद्योगिक नगरों में तो इन गैसों के आधिक्य के कारण अम्लीय अन्ध-विश्वास. बीमारी आदि का उन्मूलन करके मानवीय संवेदना वर्षा भी हो जाती है। इसके अतिरिक्त चारों ओर इतना कोलाहल एवं प्रकृति प्रेम से परिपूर्ण समाज की रचना करने में करते, लेकिन बढ़ता जा रहा है कि शोर-प्रदूषण भी एक विकट समस्या का रूप ठीक इसके विपरीत उसका अधिक उपयोग युद्ध, विलासिता, हिंसा, धारण करता जा रहा है। बढ़ते हुए कोलाहल से बहरेपन, रक्तचाप, शोषण आदि के उपकरण तैयार करने में कर रहे हैं। महात्मा गाँधी मानसिक तनाव आदि में वृद्धि हो रही है। आजकल तो धार्मिक ने औद्योगिक घरानों के बीच चलने वाली स्पर्धा के घातक परिणामों स्थल भी, जो कभी आदर्श शान्ति के स्थान हुआ करते थे, को भली-भाँति समझ लिया। वे जान गये थे कि इस सभ्यता में
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