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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ ।
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पर्यावरण परिरक्षण : अपरिहार्य आवश्यकता
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-डॉ. हरिश्चन्द्र भारतीय मानव-जाति एक बहुत बड़े भय से मुक्त होकर बीसवीं सदी से अधिकता के कारण विकासशील देशों में जनसंख्या की वृद्धि-दर इक्कीसवीं सदी के प्रवेश द्वार पर पहुँच रही है। लगभग चालीस वर्ष । बहुत अधिक है, जबकि विकसित देशों में यह शून्य के आस-पास तक सारा संसार परमाणु युद्ध के सम्भावित महाविनाश की आशंका ही है। इस दृष्टि से भारत का परिदृश्य भी बड़ा निराशाजनक है। के साये में जीता रहा। सन् १९४९-५० से १९८९-९० तक दुनियां विभाजन के बाद भारत की आबादी ३३-३४ करोड़ के लगभग रह की दोनों महाशक्तिया, रूस और अमरीका एक दूसरे के | गई थी, जो आजकल बढ़कर ८९ करोड़ से अधिक हो चुकी है। आमने-सामने खड़ी रहीं और समस्त सृष्टि को १५-१६ बार नष्ट हमारे यहाँ प्रतिवर्ष लगभग १ करोड ७० लाख लोग बढ़ जाते हैंकरने की क्षमता रखने वाले नाभिकीय अस्त्रों के दुरुपयोग की घोर । यह संख्या आस्ट्रेलिया की कुल आबादी से अधिक है। पीड़ा हमें सताती रही। नाभिकीय विश्व युद्ध की विभीषिका को
पर्यावरण के बारे में विश्व-चिन्तन का आरम्भ सन् १९७२ में टालने में उदात्त मानवीय विरासत के अनुरूप भारत की विशिष्ट
स्टॉकहोम के अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन से हुआ। पर्यावरण के चार मुख्य भूमिका को हम गर्व एवं गहरे आत्म-संतोष के साथ याद कर सकते
घटक हैं-वायु मण्डल, जल मण्डल, स्थल-मण्डल तथा जैव-मण्डल हैं। विश्व स्तर पर पंचशील और सह-अस्तित्व तथा गुट-निरपेक्षता
(वनस्पति एवं प्राणी वर्ग)। इनके पारस्परिक अध्ययन को की नीति के आधार पर हमारे शान्ति-प्रयास भगवान महावीर और
पारिस्थितिकी कहते हैं। अभी तक की निश्चित जानकारी के बुद्ध से लेकर कबीर, नानक और गाँधी की विश्व-दृष्टि के प्रतिफल
अनुसार हमारी पृथ्वी ही एक मात्र ऐसा ग्रह अथवा आकाशीय थे, जिन्हें युग पुरुष नेहरू ने मुखरित किया था। वे प्रयास कितने
पिण्ड है जिस पर जीवन पाया जाता है। इतना शस्य श्यामल सुन्दर सफल और असफल रहे, यह एक अलग बिन्दु है, किन्तु इसी
कोई अन्य ग्रह नहीं है। लगभग ५ अरब वर्ष पूर्व अस्तित्व में आई शताब्दी के महान् दार्शनिक चिन्तक बण्ड रसल ने जब यह कहा
पृथ्वी पर धीर-धीरे वायु मण्डल, जल मण्डल और स्थल-मण्डल का कि नेहरू की गुट-निरपेक्षता की नीति ने एक से अधिक अवसरों
निर्माण हुआ और २-३ अरब वर्ष पूर्व जीव-द्रव्य के निर्माण की पर संसार को तृतीय विश्व युद्ध से बचाया, तब स्वाधीन भारत की
प्रक्रिया आरम्भ हुई। जैव-विकास की लम्बी और जटिल पगडण्डियों ऐतिहासिक सार्थकता का महत्व सामने आया था।
पर चलते हुए सूक्ष्म-सरल संरचना के जीवों से लेकर विशाल एक नया संकट
जटिल जीवों का आविर्भाव होता गया। जीवों की जो जातियाँ अपने शीतयुद्ध की समाप्ति के साथ नाभिकीय युद्ध का खतरा तो
आपको बदलते हुए पर्यावरण के अनुकूल नहीं ढाल सकीं, वे बहुत कुछ टल गया; किन्तु जिस नये संकट का सामना इक्कीसवीं
विलुप्त हो गई। जैव-विकास के दौरान विलोपन की ये घटनायें शताब्दी को करना पड़ सकता है, महाविनाश की दृष्टि से वह और
बहुत धीमी गति से यदा-कदा ही होती थीं।
बहुत धाम भी अधिक गम्भीर हो सकता है। वह संकट और कहीं नहीं, हमारे सर्वांगीण दृष्टि से विचार करें तो आधुनिक मानव को, पर्यावरण से आ रहा है, जो हमारी विविध गतिविधियों के कारण। जिसका वैज्ञानिक नाम “होमो सेपियन्स" (Homo sapiens) है, द्रुतगति से प्रदूषित हो रहा है। वह अभी से अपने विकराल रूप की प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ कृति कह सकते हैं। अपने मुक्त हाथों पर झलकियां भी दिखाने लगा है, और अगर यही गति रही तो आधारित सर्जनात्मक (साथ ही विनाशात्मक भी) क्षमता, वाणी अत्यधिक प्रदूषण के परिणाम कितने भयावह हो सकते हैं, उनकी और विचार क्षमता के कारण वह अन्य सभी प्राणियों से भिन्न है। कल्पना करना भी कठिन है, और निरन्तर बढ़ती हुई जनसंख्या के विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों के निर्माण-क्रम के विगत सन्दर्भ में इस समस्या पर विचार करें तो सिर चकराने लगता है। १०-१२ हजार वर्षों के छोटे से इतिहास में उसने सारी पृथ्वी का परिवार नियंत्रण के अनेक प्रयासों के बावजूद विश्व की जनसंख्या रूप ही बदल डाला है और प्रकृति के सहज कार्य-कलापों में अनेक बराबर बढ़ती ही जा रही है। प्रतिवर्ष ९-९१ करोड़ की वृद्धि-दर विघ्न खड़े कर दिये हैं। वनों की व्यापक कटाई, खेती-बाड़ी, से वह ५१ अरब का आंकड़ा पार कर चुकी है तथा सन् दो पशुपालन, भवन-निर्माण, कल-कारखाने, जल-थल और वायु में हजार तक ६१ अरब के आस-पास पहुँच जायेगी। आबादी बढ़ने । गमन करते वाहन आदि मानव की ऐसी गतिविधियां हैं जिन्हें के साथ ही रोटी-रोजी, कपड़ा और मकान की समस्या तीव्र होती प्रकृति एक सीमा तक ही वहन कर सकती है। उसके बाद तो जाती है, जिससे और अधिक खेती, चरागाहों तथा भवन-निर्माण विनाश की राह पर ही अग्रसर होना है। हम पर्यावरण के सन्दर्भ में के लिए आवश्यक भूमि प्राप्त करने हेतु वनों की कटाई, उस 'लक्ष्मण रेखा' के अतिक्रमण के समीप पहुँच गये हैं, जहाँ से जैव-विविधता के विनाश और पेयजल की कमी का सिलसिला आगे सुरक्षित वापसी सम्भव नहीं है। हमारी विविध गतिविधियों के बढ़ता जाता है। दुर्भाग्य से भूख, गरीबी, अज्ञान और पाखण्ड की फलस्वरूप पर्यावरण के सभी घटकों में दोष आ रहा है और सारा
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