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जल भी सूख जाएगा-समस्त वनस्पति और प्राणी जल कर भस्म हो जाएंगे। सब कुछ स्वाहा हो जाएगा। आज प्रदूषण और पर्यावरण संतुलन का जो हडकम्प मचा हुआ है, इसका मूल कारण ही यही है। कि पर्यावरण को खतरा उत्पन्न हो गया है। दक्षिणी ध्रुव के उपर तो ओजोन पर्त कुछ क्षतिग्रस्त हो भी गयी है। इसी कारण सभी चिन्तित हैं।
अस्तित्व का यह संकट पर्यावरण के असंतुलन के कारण ही उत्पन्न हुआ है और असंतुलन का मूल कारण है प्रदूषण। ये प्रदूषण अनेक प्रकार के हैं। इनमें से प्रमुख 泉
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति प्रदूषण ।
इन उपर्युक्त प्रदूषणों से पर्यावरण की घोर हानि हो रही है और इनकी तीव्रता उत्तरोत्तर अभिवर्धित भी होती ही चली जा रही है। जैन दृष्टि से तो अहिंसा द्वारा पर्यावरण की सुरक्षा का सार्थक और सफल उपाय किया जा सकता है। स्पष्ट है कि हिंसा ही इस महाविनाश के लिए उत्तरदायी कारण है जिनेश्वर भगवान महावीर ने सूक्ष्मातिसूक्ष्म से लेकर विशालकाय सभी चौरासी लाख जीवयोनियों के सुखपूर्वक एवं सुरक्षित जीवन का अधिकार मान्य किया। मानव जाति को किसी का घात न करने का निर्देश देते हुए महावीर स्वामी ने यह तथ्य प्रतिपादित किया था कि सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई भी नहीं चाहता। सभी को सुख ही प्रिय है, दुःख किसी को नहीं अतः दूसरे सभी प्राणियों को जीवित रहने । में सहायता करो। जीवों को परस्पर उपकार ही करना चाहिए। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति- इन सभी में जैन दर्शन प्राणों का अस्तित्व स्वीकार करता है। अहिंसा इनकी रक्षा की प्रेरणा देती है। अस्तु, अहिंसा प्रदूषण पर अंकुश लगाकर पर्यावरण के असन्तुलन को रोकने का सबल साधन बन जाती है।
पृथ्वी प्राणियों का पालन भातावत् करती चली आ रही है। मनुष्य ने जो उपभोग की प्रवृत्ति को असीम रूप से विकसित कर लिया, उसके कारण पृथ्वी का अनुचित दोहन हो रहा है और वह प्रदूषित हो गयी है रासायनिक खादों का उपयोग धरती के तत्वों को असंतुलित कर रहा है। कोयला, पेट्रोल और खनिजों के लिए उसे खोखला बनाया जा रहा है। पृथ्वी रसहीन और दुर्बल हो रही है। धरती के ऊपर भी अनेक रसायनों की प्रतिक्रियाएं हो रही है। औद्योगिक कचरा और दूषित पदार्थों से भी यह प्रदूषित हो रही है। भूगर्भ से पानी का शोषण तो होता रहा है, जनसंख्या वृद्धि और आवासन उपयोग के आधिक्य ने भी धरती की आर्द्रता को बहुत घटा दिया है। अहिंसा वृत्ति को अपना कर धरा की रक्षा करना हमारा परम कर्तव्य है।
जल तो जीवों का जीवन ही है "जीवन दो घनश्याम हमें अब जीवन दो" - श्लेष से जीवन का यहाँ दूसरा अर्थ जल से ही है। जल का जीवों पर भारी उपकार है। जल के बिना जीवन ही असम्भव है, किन्तु अपनी कृतघ्नता का परिचय देते हुए मनुष्य इसी
வேரிகுமாரி
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
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जल को दूषित कर रहा है और अपने अस्तित्व को ही संकट में डाल रहा है। यह अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी मारना है। सभी नदियों, सरोवरों का यहां तक कि समुद्र का जल भी प्रदूषित होने लगा है। उद्योगों से निसृत गंदा जल, कूड़ा करकट नदियों में वहा दिया जाता है। विषाक्त पदार्थों को नदियों में विसर्जित करने में भी मनुष्य हिचकता नहीं है। अस्थि विसर्जन ही नहीं, शवों को भी नदियों में बहाया जाता है। महानगरों की सारी गंदगी और कूड़ा करकट बेचारी नदियां ही झेलती रही हैं। फिर अदूषित, शुद्ध जल भला बचे तो कैसे बचे पेयजल की आपूर्ति के लिए इस मलिन, प्रदूषित जल को क्लोरीन से स्वच्छ करने का प्रयत्न किया जाता है। इसका भी दोहरा दोष सामने आया है। एक तो क्लोरीन मिश्रित जल मनुष्य के लिए रोगोत्पादक हो जाता है और दूसरा यह कि प्रदूषित करने वाले कीटों के साथ-साथ क्लोरीन से जल के वे स्वाभाविक कीट भी नष्ट हो जाते हैं, जो जल को स्वच्छ रखने का काम करते हैं, यह प्रत्यक्ष हिंसा है जल को प्रदूषित करने वाले अन्य हिंसक कार्यों में पेट्रोल, तेजाब आदि को समुद्र और नदियों में बहा देने की घातक प्रवृत्तियां भी हैं, जिनका कर्ता यह नहीं समझ पा रहा कि अन्ततः इस सबको करके वह किसकी हानि कर रहा है।
8.90.D.
वायु जीवन के लिए स्वयं ही प्राणों के समान है। वायु ही ऑक्सीजन की स्रोत है और ऑक्सीजन के बिना प्राणी का कुछ पलों तक जीना भी असम्भव है। मनुष्य के दुष्कृत्यों ने ऐसी जीवनदायिनी वायु को ही प्रदूषित कर दिया है। कार्बनडाई ऑक्साइड की मात्रा वायुमण्डल में बढ़ती जा रही है और प्राण वायु न केवल दूषित, अपितु क्षीण भी होती जा रही है। उद्योगों की बढ़ती परम्परा और वाहनों का बढ़ता प्रचलन कार्बनडाई ऑक्साइड के प्रबल स्रोत हो रहे हैं और वातावरण को दूषित घातक बना रहे हैं जनाधिक्य भी ऑक्सीजन की खपत और कार्बनडाइ ऑक्साइड के उत्पादन को बढ़ा रहा है। सांस लेना दुष्कर होता जा रहा है। और सांस लेने वाले द्रुत गति से बढ़ते ही चले जा रहे हैं अनेक रसायनों से विषाक्त गैसें और दुर्गन्ध निकलकर वायु को दूषित कर रही है। यही प्रदूषित वायु प्रदूषित जल और पृथ्वी के सम्पर्क में आकर और अधिक प्रदूषित होती जा रही है और अपने सम्पर्क से ओजोनस्फेयर को प्रदूषित कर रही है। मनुष्य की अहिंसा प्रवृत्ति अब भी वायु को जीव मानकर उसकी रक्षा करने लगे तो वह स्वयं पर ही उपकार करेगा।
अग्नि भी सप्राण है। इसकी रक्षा करना, इस पर प्रहार न करना हर मनुष्य के लिए करणीय कर्म है, यद्यपि यह चेतना भी उसमें अभी अत्यल्प है। भोजन मनुष्य के लिए अनिवार्य है, तो भोजन पकाने के लिए अग्नि भी अनिवार्य है। आधुनिक प्रचलन ईंधन रूप में गैस के प्रयोग का हो गया है। भोजन पकाने के साथ-साथ यह गैस कई हानिकारक गैसें भी बनाती है और
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