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। इतिहास की अमर बेल
युगप्रवर्तक क्रांतिकारी आचार्यश्री अमरसिंह जी महाराज
व्यक्तित्व और कृतित्व
। करना
-आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि भारत की दो संस्कृतियां
समन शब्द का अर्थ समानता है। श्रमण संस्कृति में सभी जीव
समान हैं, उसमें धन, जन, परिजन की दृष्टि से कोई श्रेष्ठ भारतीय संस्कृति विश्व की एक महान् संस्कृति है जो हजारों
और कनिष्ठ नहीं है। आत्म-भाव में स्थिर रहकर साधना करना वर्षों से गंगा के विशाल प्रवाह की तरह जन-जन के अन्तर्मानस में
समानता है। प्रवाहित हो रही है। मन और मस्तिष्क का परिमार्जन कर रही है। यह संस्कृति मूलतः दो संस्कृतियों का समन्वित रूप है-एक वैदिक
इस तरह श्रमण संस्कृति का मूल श्रम, शम और सम है। ये संस्कृति और दूसरी श्रमणसंस्कृति। वैदिक संस्कृति में बाह्य शुचिता,
तीनों सिद्धान्त विशुद्ध मानवता पर आधारित है। इसमें वर्ग-भेद, सम्पन्नता एवं समृद्धि को प्रोत्साहन दिया गया है, तो श्रमण संस्कृति
{ वर्ण-भेद, उपनिवेशवाद आदि असमानता वाले तत्व नहीं हैं। में अन्तरंग पवित्रता, आत्मगुणों का विकास एवं आत्मलीनता पर श्रमण संस्कृति ने आत्म-विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। विशेष बल दिया गया है। वैदिक संस्कृति का मूल प्रकृति है, श्रमण आत्मा की अन्तरंग पवित्रता, निर्मलता और उसके गुणों का विकास संस्कृति का मूल स्वात्मा है। प्रथम बाह्य है तो दूसरी आन्तर है। करने में श्रमण संस्कृति ने उदात्त चिन्तन प्रस्तुत किया है। आत्मी प्रकृति के विविध पहलुओं, घटनाओं को निहारकर समय-समय
की अनन्त ज्ञान शक्तियाँ, अनन्त विभूतियाँ और अनन्त सुखमय पर ऋषियों ने जो कल्पनाएँ की उनमें से ब्रह्म का स्वरूप प्रस्फुटित
स्वरूप दशा में विकास में जागरूक ही नहीं; प्रयत्नशील भी रही हैं।
आत्म-गुणों का चरम विकास ही इस संस्कृति का मूल ध्येय रहा है। हुआ है किन्तु श्रमण संस्कृति का आत्मचेतना की ओर अधिक
भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर तक असंख्य साधकों झुकाव रहा है। उसका स्पष्ट मन्तव्य है-प्रत्येक प्राणी में एक चिन्मय
ने आत्म-साधना के महान पथ पर कदम बढ़ाये हैं, आत्म-जागरण ज्योति छिपी हुई है, चाहे कीड़ा हो, चाहे कुंजर, पशु हो या मानव, नरक का जीव हो या स्वर्ग का अधीश्वर देवराज इन्द्र हो, सभी में
और आत्म-विकास तथा आत्म-लक्ष्य तक पहुँचते रहे हैं। वह अखण्ड ज्योति जगमगा रही है। किसी ने उस ज्योति का विकास
इतिहासविज्ञों का अभिमत है कि भगवान महावीर का युग किया है तो किसी में वह ज्योति राख से आच्छादित अग्नि के समान
श्रमणसंस्कृति का स्वर्ण-युग था। इस युग में श्रमण संस्कृति अपने सुप्त है। वैदिक संस्कृति में परतन्त्रता, ईश्वरावलम्बन और
चरम उत्कर्ष पर थी। हजारों-लाखों साधकों ने आत्म-कल्याण व क्रियाकाण्ड की प्रमुखता रही तो श्रमण संस्कृति में आत्म-स्वातन्त्र्य,
जन-कल्याण किया। काल प्रवाह से उसमें कुछ विकृतियाँ आ गयी स्वावलम्बन और विशुद्ध आत्मा की सर्वोच्च शक्ति पर विश्वास रहा।
थीं, जिसे श्रमण भगवान महावीर ने अपने प्रबल प्रभाव से दूर
किया और नया चिन्तन, नया दर्शन देकर युग को परिवर्तित किया। श्रमण संस्कृति का मूल शब्द “समण' है जिसका संस्कृत रूपान्तर है श्रमण, शमन और समन।
भगवान महावीर ने चिन्तन और दर्शन के क्षेत्र में जो क्रान्ति
कर अवरुद्ध प्रवाह को मोड़ा था, परिस्थितिवश पुनः उस प्रवाह में श्रमण शब्द श्रम् धातु से निष्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है
मन्दता आ गयी, धार्मिक अन्धविश्वासों ने मानव के चिन्तन को परिश्रम करना, उद्योग करना। इस संस्कृति में तथाकथित ईश्वर
अवरुद्ध कर दिया था। अतः क्रान्तिकारी ज्योतिर्धर आचार्यों ने पुनः मुक्तिदाता नहीं है, वह सृष्टि का कर्ता-धर्ता और हर्ता नहीं है। इस
क्रान्ति की। संस्कृति की मान्यतानुसार प्रत्येक व्यक्ति अपने श्रम और सत्कार्यों से
क्रांति का युग ईश्वर बन सकता है। वह ईश्वर के प्रसाद पर निर्भर नहीं, किन्तु आत्म-विकास से स्वयं उस चरम स्थिति को प्राप्त कर सकता है।
सन्त परम्परा के समुज्ज्वल इतिहास में सोलहवीं सदी का
विशेष महत्व है। इसी युग को वैचारिक क्रान्तिकारियों का युग कहा शमन का अर्थ शान्त करना है। श्रमण अपनी चित्तप्रवृत्तियों के
जाय तो अत्युक्ति न होगी। कबीर, नानक, सन्त रविदास, तरणविकारभावों का शमन करता है। उसकी मूल साधना है तारण स्वामी और लोकाशाह आदि ने क्रान्ति की शंखध्वनि से आत्म-चिन्तन और भेद-विज्ञान। चारों वर्ण वाले समान रूप से भारतीय जनमानस को नवजागरण का दिव्य सन्देश दिया। धर्म के आत्म-चिन्तन करने के अधिकारी हैं, मुक्ति को प्राप्त करने के भी। ।
मौलिक तत्वों के नाम पर जो विकार, असंगतियाँ और कलह-मूलक साधक शत्रु-मित्र, बन्धु-बान्धव, सुख-दुःख, प्रशंसा और निन्दा, धारणाएँ पनप रही थीं उनके प्रति तीव्र असन्तोष व्यक्त किया। उन जीवन और मरण जैसे विषयों में भी समत्व भावना रखता है। क्रान्तिकारियों के उदय से स्थितिपालक समाज में एक हलचल
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