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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ जैन-शिक्षा-प्रणाली
अनुसार पाँच से आठ वर्ष की आयु बालक के अध्ययन एवं
शिक्षाग्रहण करने की सर्वथ अनुकूल होती है। प्राचीन जैन शिक्षा प्रणाली में इन दोनों विधियों का समन्वय तो है ही, लेकिन साथ ही कुछ ऐसे भी तत्त्व हैं, जिनसे व्यक्तित्त्व का
प्राचीन वैदिक एवं जैन साहित्य के अनुशीलन से पता चलता है समग्र विकास होता है।
कि पाँच वर्ष के पश्चात् ही बालक को अक्षर ज्ञान देने की प्रथा
थी। रघुवंश के अनुसार राम का मुण्डन संस्कार हो जाने के उपरोक्त दोनों शिक्षण प्रणालियाँ सिर्फ ज्ञान और बुद्धि के
अनन्तर उन्हें अक्षरज्ञान कराया गया। यह लगभग पाँचवें वर्ष में ही विकास तक ही सीमित हैं, किन्तु जैन शिक्षा प्रणाली शैक्ष या शिष्य
किया जाता था। कौटिलीय अर्थशास्त्र के अनुसार भी इसी बात -50000 की पात्रता, विनय उसकी आदतों, चरित्र, अन्तर्हृदय की भावनाओं
की पुष्टि होती है। मुण्डन संस्कार के अनन्तर वर्णमाला और फिर आदि व्यक्तित्त्व के सभी घटकों पर ध्यान देकर शैक्ष के बहिरंग
अंकमाला का अभ्यास कराया जाता था। और अन्तरंग जीवन तथा उसके व्यक्तित्व का समग्र विकास करती है। सभी दृष्टियों से उसके व्यक्तित्त्व को तेजस्वी, प्रभावशाली और
आचार्य जिनसेन तथा हेमचन्द्राचार्य के अनुसार भगवान आकर्षक (Dynamic Personalty) बनाती है।
ऋषभदेव ने सर्वप्रथम अपनी ज्येष्ठ पुत्री ब्राह्मी को दाहिने हाथ से
अक्षर माला- वर्णमाला का तथा बायें हाथ से सुन्दरी को जैन आचार्यों ने बताया है
अंकमाला-गणित का ज्ञान दिया। सामान्यतः पाँचवें वर्ष से प्रारम्भ सिक्खा दुविहा
करके वर्णमाला, अंकमाला तथा तत्पश्चात गणित का ज्ञान कराने गहण सिक्खा-सुत्तत्थ तदुभयाणं
में तीन वर्ष का समय लग जाता है। इस प्रकार आठ वर्ष का आसेवणा सिक्खा-पडिलेहणा"ठटावणा व्रतादि सेवना।
बालक शिक्षा के योग्य हो जाता है। भगवती सूत्र, ज्ञाता तथा | -पंच कल्पभाष्य-३
अन्तकृद्दशासूत्र आदि के प्रसंगों से यह स्पष्ट होता है कि आठ वर्ष
की आयु पूर्ण करने पर माता-पिता बालक को कलाचार्य के पास ले शिक्षा दो प्रकार की है
जाते थे और उन्हें सभी प्रकार की कलाएँ, विद्याएँ गुरुकुल में १. ग्रहण शिक्षा-शास्त्रों का ज्ञान, शास्त्र का शुद्ध उच्चारण, रखकर ही सिखाई जाती थीं। महाबल कुमार, मेघकुमार, अनीयस पठन, अर्थ और देश-काल के संदर्भ में शब्दों के मर्म का ज्ञान प्राप्त कुमार आदि के प्रसंग उक्त सन्दर्भ में पठनीय हैं।५ बालक वर्धमान करना-ग्रहण शिक्षा है।
को भी आठ वर्ष पूर्ण करने पर कलाचार्य के पास विद्याध्ययन हेतु 300DPad २. आसेवना शिक्षा-व्रतों का आचरण, नियमों का सम्यग् ।
ले जाने का उल्लेख है।६ निशीथचूर्णि के अनुसार आठवें वर्ष में | परिपालन और सभी प्रकार के दोषों का परिवर्जन करते हुए,
बालक शिक्षा के योग्य हो जाता है। तत्श्चात् नवम-दशम वर्ष में वह अपने चरित्र को निर्मल रखना आसेवना शिक्षा है।
दीक्षा-प्रव्रज्या के योग्य भी बन जाता है। जैन इतिहास के अनुसार
आर्य शय्यंभव के पुत्र-शिष्य मनक ने आठ वर्ष की अवस्था में सम्पूर्ण जैन साहित्य में शिक्षा को इसी व्यापक परिप्रेक्ष्य में
दीक्षित होकर श्रुतज्ञान की शिक्षा प्राप्त की। इसी प्रकार आर्य | लिया गया है, और इसी आधार पर उस पर चिन्तन हुआ है।
सिंहगिरि ने बालक वज्र को आठ वर्ष की आयु में अपनी नेश्राय में शिक्षा की यह दोनों विधियाँ मिलकर ही सम्पूर्ण और सर्वांग शिक्षा
लेकर विद्याध्ययन प्रारम्भ कराया जो एक दिन महान् वाग्मी और
श्रुतधर बने। इस प्रकार जैन आचार्यों के अनुसार शिक्षा प्रारम्भ शिक्षा प्राप्ति की अवस्था
का सबसे अच्छा और अनुकूल समय आठवां वर्ष माना गया है।
आठ वर्ष का बालक शिक्षा योग्य बन जाता है। बौद्ध ग्रन्थों के यूँ तो ज्ञान-प्राप्ति के लिए अवस्था या आयु का कोई नियम
अनुसार बुद्ध को भी आठ वर्ष की उम्र में आचार्य विश्वामित्र के नहीं है, कुछ विशिष्ट आत्माएँ जिनका विशेष क्षयोपशम होता है,
पास प्रारम्भिक शिक्षा के लिए भेजा गया था।१० जन्म से ही अवधिज्ञान युक्त होती है। किन्हीं-किन्हीं को जन्म से ही पूर्वजन्म का-जातिस्मृति ज्ञान भी होता है, परन्तु सर्वसामान्य में यह
शिक्षा की योग्यता विशिष्टता नहीं पाई जाती है।
शिक्षा प्राप्त करने के लिए जब बालक गुरुकुलवास या गुरु के आजकल ढाई-तीन वर्ष के बच्चे को ही कच्ची उम्र में नर्सरी में सान्निध्य में आता था तो सर्वप्रथम गुरु बालक की योग्यता तथा भेज दिया जाता है, यद्यपि अमेरिका जैसे विकसित देशों में ५-६ पात्रता की परीक्षा लेते थे। ज्ञान या शिक्षा एक अमृत के समान वर्ष के पहले बच्चे के कच्चे दिमाग पर शिक्षा का भार नहीं डालने है, उसे धारण करने के लिए योग्य पात्र का होना बहुत ही की मान्यता है। बाल मनोविज्ञान की नवीनतम व्याख्याओं के आवश्यक है।
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