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अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
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साधुचर्या की प्रमुख पारिभाषिक शब्दावलि अर्थ और अभिप्राय
-श्रीमती डॉ. अलका प्रचंडिया
(एम. ए. (संस्कृत), एम.ए. (हिन्दी), पी-एच. डी.) आस्था और व्यवस्था की दृष्टि से श्रमण संस्कृति का अपना १. गोचरी
२. दीक्षा महत्त्वपूर्ण स्थान है। सम्यक् श्रम-साधना पर आधृत स्वावलम्बन
३. प्रतिक्रमण ४. मुखवस्त्रिका और गुण प्रधान आस्था श्रमण संस्कृति का मुख्य लक्षण है। इस
५. मंगली पाठ ६. रजोहरण संस्कृति से अनुप्राणित होकर प्रत्येक प्राणी अपने श्रम के द्वारा स्वयं कर्म करता है और अपने किए गए कर्म-फल का स्वयं ही भोक्ता
७. वर्षावास
८. समाचारी होता है। इस प्रसंग में उसे किसी सत्ता अथवा शक्ति की कृपा की ९. सिंगाड़ा १०. संथारा आकांक्षा कभी नहीं रहती। किसी की कृपा का आकांक्षी होने पर
अब उपर्यंकित अकारादि क्रम से तालिका का क्रमशः उसे स्वावलम्बी बनने में बाधा उत्पन्न होती है। श्रमण सदा
अध्ययन-अनुशीलन करेंगे। स्वावलम्बी होता है। वह अपनी सूझ और समझ पूर्वक अपनी ही श्रम-साधना के बलबूते पर उत्तरोत्तर आत्म-विकास को उपलब्ध
गोचरी-गोचरी वस्तुतः आगमिक शब्द है। इसका आदिम रूप करता है। इस प्रकार श्रमण स्वयमेव चरम पुरुषार्थ का सम्पादन
'गोयर' है। गोयर का दूसरा रूप गोयरग्ग भी प्राचीन आर्ष ग्रन्थों में कर स्व-पर कल्याण में प्रवृत्त होता है।
उपलब्ध है। इसका अर्थ है गाय की तरह भिक्षा प्राप्त्यर्थ परिभ्रमण
करना। गाय घास चरते समय स्वयं जाग्रत रहती है। वह घास को स्वावलम्बन प्रधान आस्था की अपनी व्यवस्था होती है। इस
इस प्रकार चरती है ताकि उसका मूलवंश सुरक्षित रहे। इसी प्रकार व्यवस्था में किसी सत्ता अथवा शक्ति की वंदना अथवा उपासना
श्रमण-साधु किसी भी गृहस्थ के यहाँ जाकर उसे बिना कष्ट दिए करने का कोई विधान नहीं है। आत्मिक गुणों का स्मरण करना
यथायोग्य भिक्षा ग्रहण करता है। तथा उन्हें जान और पहिचान कर उनकी वंदना और उपासना करना उसे सर्वथा अभीष्ट रहा है। इस प्रक्रिया से साधक अपने
साधु के चित्त में गोचरी प्राप्त्यर्थ जाते समय सम्पन्न अथवा अन्तरंग में प्रतिष्ठित आत्मिक शक्ति अथवा सत्ता के गुणों का
विपन्न, कुलीन अथवा मलीन गृहस्वामी का विचार नहीं उठता। वह जागरण और उजागरण करता है। अपने आत्मिक गुणों को अनुभव
सरस और विरस भोज्य पदार्थ का भी ध्यान नहीं करता। वह कर वह स्वयं को साधता है और साधुचर्या का अनुपालन करता
निर्विकार भाव से शुद्धतापूर्ण भोज्य सामग्री को भ्रमर की भाँति है। साधुचर्या का आत्म विकास तीन चरण में सम्पन्न होता है-यथा
अल्पमात्रा में ग्रहण करता है, ताकि किसी गृहस्थ पर उसके गृहीत
आहार का किसी प्रकार से भार-भाव उत्पन्न न होने पावे। १. साधु चरण
साधु अथवा श्रमण मन-शास्त्र का ज्ञाता होता है। उसे अपने २. उपाध्याय चरण
नियमानुकूल संस्कृति से अनुप्राणित भोजन ग्रहण करना होता है। ३. आचार्य चरण
अन्य शुद्धियों के साथ भाव-शुद्धि सर्वोपरि है। गृहपति के साधु के तीन रूप पंच परमेष्ठी में अंतर्भुक्त हैं। इनकी वंदना अन्तर्मानस को वह सावधानी पूर्वक पढ़ता है। अन्यथा भाव होने करने से व्यक्ति साधक के आत्म-विकास की स्वयमेव वन्दना है। पर वह उसके यहाँ गोचरी हेतु प्रवेश नहीं करता। दर असल श्रमण साधुचर्या आत्मिक साधना की प्राथमिक प्रयोगशाला है। यहाँ
| साधु की भिक्षा पूर्णतः अहिंसक और विशुद्ध होती है। उसके द्वारा जागतिक जीवन से विरक्त होकर साधक अपनी साधना सम्पन्न
बयालीस दोषों से रहित भोजन ही ग्रहण किया जाता है। करता है। साधुचर्या से सम्बन्धित अनेक शब्दावलि आज प्रायः दीक्षा-दीक्षा शब्द में समस्त इच्छाओं और वासनाओं के दहन लाक्षणिक हो गयी है।
करने का विधान विद्यमान है। जागतिक जीवन की नश्वरता तथा शब्द एक शक्ति है और अभिव्यक्ति उस शक्ति का परिणाम।।
निस्सारता के प्रति वैराग्यमुखी प्राणी दीक्षा के लिए दस्तक देता है। साधु-चर्या का प्रत्येक शब्द आज अपनी आर्थिक सम्पदा की दृष्टि
उसके मनमानस में संसार और संसारीजनों के प्रति आसक्ति एवं से विशिष्ट हो गया है। उस शाब्दिक अर्थ वैशिष्ट्य की अपनी
| मोह के त्याग का भाव उत्पन्न होता है। परिभाषा है। उसी शब्दावलि से सम्बन्धित यहाँ कुछेक शब्दों की प्रश्न यह है कि आर्हती दीक्षा ग्रहण करने की पाबता किसमें परिभाषा को स्पष्ट करना वस्तुतः हमारा मूलाभिप्रेत है। विवेच्य है? आगम के आदेशानुसार जिसमें वैराग्य की तीव्र भावना हो वह शब्दावलि की संक्षिप्ति तालिका निम्नलिखित है-यथा
मुमुक्षु सहज रूप में दीक्षा धारण कर सकता है। प्राचीन ग्रन्थों में BREPORT
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