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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । व्रतात्मक आचार वस्तुतः शाश्वत महाव्रत है। यह साधुजीवन किया करते हैं। सिंगाड़ा प्रमुख सामाजिकों को आशीर्वचन के रूप में को स्वावलम्बी बनाता है। इससे आत्मिक आलोक प्रायः उद्दीप्त होता । 'मंगली पाठ' सुनाया करता है। है। व्यवहारात्मक आचार परस्पर में पूरक की भूमिका का निर्वाह
संथारा-जन्म-जीवन की अत्यन्त हर्षप्रद घटना है। मृत्यु जीवन करता है। विचार जब व्यवहार में चरितार्थ होता है तब सामाचारी
{ की अत्यन्त दुःखद और शोक प्रद घटना है। जन्म महोत्सव संसार का जन्म होता है। श्रमण अथवा साधुचर्या की समस्त प्रवृत्तियाँ
की सभी संस्कृतियाँ सहर्ष मनाती हैं। केवल श्रमण संस्कृति है जहाँ वस्तुतः सामाचारी शब्द में समादिष्ट हो जाती हैं। सामाचारी साधु
मृत्यु को भी महोत्सव के रूप में आनन्दपूर्वक मनाया जाता है। समुदाय अथवा संघीय जीवन जीने की श्रेष्ठ कला है।
मृत्यु एक महत्त्वपूर्ण कला है। पंडितमरण को श्रेष्ठ मरण कहा आवश्यकी, नैषेधिकी, आपृच्छा, प्रतिपृच्छा, छन्दना, इच्छाकार,
गया है। विवेकपूर्वक अत्यन्त निराकुल अवस्था में अपनी जागतिक मिच्छाकार, तदाकार, अभ्युत्थान तथा उपसम्पदा नामक दश विधि
पर्याय को छोड़कर नई पर्याय को ग्रहण करने की आकांक्षा को प्रयोग समाचारी के लिए आर्ष ग्रन्थों में उल्लिखित है।
लेकर पौद्गलिक शरीर-पर्याय को त्यागना अथवा उससे प्राणों का एक पूर्ण दिवस दो भागों में विभक्त है-रात और दिन। रात । बहिर्गमन करना मृत्यु महोत्सव है। और दिन क्रमशः चार-चार प्रहरों में विभक्त है। श्रमण समाचारी
पंडितमरण वस्तुतः सिद्धान्त है। मृत्यु की व्यावहारिक प्रक्रिया का निम्न क्रम से विभाजन किया गया है। श्रमण अथवा साधु दिन
का नाम है-संथारा! यह आगमिक शब्द है। इस शब्द का अभिप्रेत के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, द्वितीय प्रहर में ध्यान, तृतीय प्रहर में।
है-दर्भ का बिछौना। संथारे की पूर्ण प्रक्रिया को संक्षेप में निम्न आहार और चतुर्थ प्रहर में पुनः स्वाध्याय में प्रवत्त हो जाता है। प्रकार से व्यक्त किया जा सकता हैदिन की भाँति रात्रि के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, द्वितीय प्रहर में ध्यान, तृतीय प्रहर में निद्रा-विश्राम और चतुर्थ प्रहर में पुनः
संथारा ग्रहण करने से पूर्व साधक को संल्लेखना व्रत का
पालन करना आवश्यक होता है। इसमें आहार अर्थात् जल-पान स्वाध्याय करने का निर्देश है।
क्रमशः त्यागकर शरीर की पुष्टता को कृश किया जाता है। अपनी इस प्रकार श्रमण अथवा साधु की चर्या का विकास सामाचारी ।
आयु कर्म की अवधि का ज्ञान होने पर सल्लेखना व्रत लेने का पर निर्भर करता है। इससे उसके जीवन में अनेक सद्गुणों की विधान है। साधारण संसारी इस महान व्रत का पालन नहीं कर अभिवृद्धि होती है।
पाता। श्रमण अथवा सुधी साधु द्वारा ही संल्लेखना और संथारा का सिंगाडा-श्रमण अथवा साधु संघ की एक अपनी आचार- उपयोग किया जाना सम्भव है। 140
संहिता होती है। संघ का प्रधान होता है-आचार्य। आचार्य का ____सुधी साधक अपने जीवन की आखिरी अवस्था में निरवद्य निदेश पाकर साधु-समाज पूरे देश की परिक्रमा लगाता है। साधु शुद्ध स्थान की खोज करता है। उसी स्थान पर वह अपना आसन पदयात्री होते हैं। वे भगवंत महावीर के कल्याणकारी मंगल उपदेशों जमाता है। दर्भ, घास, पराल आदि में से किसी एक का संथारा का जन-साधारण में प्रचार-प्रसार किया करते हैं। उनकी यात्रा का । अर्थात बिछौना बिछाया जाता है। साधक पूर्व अथवा उत्तर दिशा मूल अभिप्रेत जन-जीवन में सदाचार का प्रवर्तन करना रहा है। की ओर मुंह करके बैठता है। इसके उपरान्त मारणान्तिक प्रतिज्ञा आचार्य श्री के साथ निश्चित साधु-साध्वी रहा करते हैं, शेष सभी की जाती है। नमस्कार मंत्र का तीन वार अनुपाठ करते हैं। वंदना, साधुओं की तीन-तीन की टुकड़ी आवश्यकतानुसार अधिक या कम इच्छाकारेणं, तस्स उत्तरी करणेणं, लोगस्स का पाठ कर भक्त भी बनायी जाती है जिसमें एक साधु अथवा साध्वी वरिष्ठ होता प्रत्याख्यान किया जाता है। साथ ही चारों आहार का त्याग, अठारह है। वही उस टुकड़ी का प्रमुख होता है। यह टुकड़ी ही वस्तुतः पाप स्थानों का त्याग तथा शरीर के प्रति समस्त मोह-ममत्व का सिंगाड़ा कहलाती है।
त्याग कर समाधिमरण को वरण किया जाता है। यद्यपि सिंगाड़ा का प्रमुख होता है वरिष्ठ साधु तथापि किसी उपर्यंकित अध्ययन और अनुशीलन के आधार पर यह सहज बात का निर्णय तीनों साधुओं से परामर्श करने के पश्चात ही ही कहा जा सकता है कि श्रमण अथवा साधु की जीवन चर्या को किया जाता है। सिंगाड़ा प्रमुख की आज्ञा प्राप्त किए बिना कोई । समझने के लिए उससे सम्बन्धित सम्पूर्ण शब्दावलि का प्रयोग और साधु बाहर आ-जा नहीं सकता है। उसकी आज्ञा अथवा अनुमति । प्रयोजन समझना अत्यन्त आवश्यक है। इन शब्दों की लाक्षणिकता प्राप्त करके ही अन्य साधु गोचरी अथवा अन्य किसी कार्य से का वैज्ञानिक विश्लेषण करने के लिए संक्षिप्त अध्ययन का मूल बाहर विहार करता है।
अभिप्रेत रहा है। सिंगाड़ा की संस्कृति अनुशासन प्रधान होती है। लोक अथवा मंगल कलश समाज को उपदेश देने का शुभ अवसर सिंगाड़ा प्रमुख को प्राप्त ३९४, सर्वोदय नगर होता है। उसी के निदेश से अन्य साधु अपने-अपने विचार व्यक्त | आगरा रोड, अलीगढ़
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