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अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
की अनित्यता, अशुचिता आदि का बोध होता है जिसके फलस्वरूप शरीर के प्रति उसका मोह क्षीण होने लगता है, अपने शरीर के प्रति भी जुगुप्सा भाव पनपने लगता है, जो कालान्तर में पूर्ण वैराग्य का हेतु बनता है। स्थूलकाय की प्रेक्षा का अभ्यास हो जाने पर साधक सूक्ष्मकाय, जिसे तैजस्काय भी कहते हैं, की प्रेक्षा करना प्रारम्भ करता है। सूक्ष्मकाय में मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार ये चार, अन्तःकरण, प्राण, अपान, उदान, समान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनंजय ये दस प्राण और आत्मा आते हैं। साधक क्रमशः इनकी प्रेक्षा करता है। इनके स्वरूप, स्थिति और कार्यों का निरीक्षण करता है। चेतना के केन्द्रभूत चक्रों की प्रेज्ञा करता है, उनमें अद्भुत ज्योति का साक्षात्कार करता है।
तेजस कामप्रेक्षा के बाद साधक कार्मण काय की प्रेक्षा करता है, जिसे कारण शरीर भी कहते हैं। कार्मणकाय की प्रेक्षा के क्रम में वह क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध कर्मों के समूह को, कर्मों के संस्कारों को देखता है, जिनके कारण उसे यह मानव शरीर मिला है और सुख-दुःख के विविध रूप परिणाम प्राप्त हो रहे हैं, कर्म और कर्मफल के सम्बन्ध को देखता है, पहचानता है।
इस कायप्रेक्षा के परिणामस्वरूप साधक प्रमादरहित होकर सतत जागरूक हो जाता है, वह जन्म-जन्मान्तर के रहस्य को पहचान लेता है, फलत मोक्ष साधना में वह दृढ़तापूर्वक प्रवृत्त हो जाता है।
श्वासप्रेक्षा प्रेक्षा ध्यान का दूसरा रूप श्वासप्रेक्षा है। इसमें साधक नासिका मार्ग से आने जाने वाले श्वास-प्रश्वास की गति की प्रेक्षा करता है। श्वास-प्रश्वास, प्राण और मन तीनों परस्पर सतत सम्बद्ध और सहचारी है। नाड़ी संस्थान भी उसके साथ जुड़ा हुआ है अतः श्वासप्रेज्ञा में साधक इनकी स्थिति, गति और उसके प्रभाव की प्रेक्षा करता है।
श्वास-प्रश्वास की गति दो प्रकार की होती है; सहज और प्रयत्नपूर्वक प्रयत्नपूर्वक श्वास-प्रश्वास की गति को प्राणायाम कहते हैं। प्राणायाम साधना अष्टांग योग का चतुर्थ अंग है। हठयोग की वह प्रधान क्रिया है, उसका वर्णन यहाँ अप्रासंगिक है । २ सहज और सप्रयत्न दोनों ही प्रकार के श्वास-प्रश्वास की प्रेक्षा से अनेक रोगों की निवृत्ति होकर सामान्य स्वास्थ्य की प्राप्ति तो होती ही है साधक को सुषुम्णा पर विजय प्राप्त हो जाती है, उसकी इच्छानुसार दक्षिण या वाम नासापुट से उसका श्वास चलने लगता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि मनोवेगों पर साधक विजय प्राप्त कर लेता है और चंचल चित्त पूर्णतः उसके वश में हो जाता है।
विचार प्रेक्षा या संकल्प-विकल्पों की प्रेक्षा श्वासप्रेक्षा के अभ्यास से साधक सूक्ष्म द्रष्टा बन जाता है। विचार प्रेक्षा में वह स्थूल और सूक्ष्म शरीर से भी गहराई में पहुँचकर चेतन, अवचेतन और अचेतन मन को देखने समझने लगता है। वह चेतन मन में उठने वाले संकल्प-विकल्पों को तटस्थभाव से देखता है और धीरे-धीरे उनके ध्यान से अवचेतन मन में और उसके बाद अचेतन
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मन में पहुँचता है। कालान्तर में अपने सम्पूर्ण संस्कारों का साक्षात्कार कर लेता है क्योंकि संस्कार ही हमारे सुखों-दु:खों, व्यवहारों और वर्तमान कर्मों के नियामक होते हैं। अतः संस्कारों का साक्षात्कार होने पर साधक उनका निरसन कर लेता है, फलतः उसके राग, द्वेषादि, मन के संवेग जड़ मूल से नष्ट हो जाते हैं। संवेगों के शान्त हो जाने पर साधक की सभी क्रियाएँ निष्काम हो जाती हैं। निष्काम कर्म बन्धन के कारण नहीं बनते। अतः साधक के लिए मोक्षमार्ग का द्वार खुल जाता है।
कषायप्रेक्षा- कषाय का अर्थ काम, क्रोध आदि मनोवेग हैं। ये (काम, क्रोध आदि) सूक्ष्म रूप में हमारे कार्मण शरीर अर्थात् संस्कारों में भरे पड़े रहते हैं, और उत्तेजक परिस्थिति मिलने पर प्रकट होते हैं। सामान्य जन अभिव्यक्ति होने पर इन्हें पहचान पाता है, किन्तु संकल्प-विकल्पों की प्रेक्षा में दक्षता प्राप्त साधक अवचेतन | मन की गहराई तक पहुँचकर इनका इनके कारणों का और उनके कार्यों अर्थात् परिणामों का साक्षात्कार तटस्थ होकर करता है। उसके परिणामस्वरूप आवेग संवेग उपशान्त हो जाते हैं, उनके मूल कारण गलित हो जाते हैं और साधक सच्ची आध्यात्मिक शान्ति की ओर निर्वाध बढ़ने लगता है।
पुद्गल या अनिमेषप्रेक्षा-अनिमेष प्रेक्षा हठयोग की परम्परा के त्राटक के बहुत निकट है। किसी एक पुद्गल, भित्ति या फलक पर निर्मित बिन्दु जिन प्रतिमा अथवा अपने आराध्य की प्रतिमा के समग्र अंश अथवा बिन्दु विशेष पर अथवा नासाग्र पर अनिमेष अर्थात् पलक झपकाये बिना स्थिर रूप से देखना पुद्गल प्रेक्षा या अनिमेष प्रेक्षा है। सामान्यतः मानव मस्तिष्क के असंख्य ज्ञानकोषों में केवल कुछ ही क्रियाशील रहते हैं, शेष सुप्त अवस्था में पड़े। रहते हैं। अतीन्द्रिय ज्ञान की क्षमता उन सुप्त कोशों में विद्यमान रहती है। किन्तु इन कोशों के सुप्त अवस्था में पड़े रहने से मानव अल्पज्ञ बना रहता है। अनिमेष प्रेक्षा से ये सुप्त ज्ञानकोश क्रियाशील हो जाते हैं, फलतः साधक अतीन्द्रिय ज्ञान से सम्पन्न हो जाता है।
वर्तमान क्षण की प्रेक्षा वर्तमान क्षण भूत और भविष्य की विभाजक रेखा है। यह क्षण तलवार की धार की भांति सूक्ष्मतम है। सामान्यतः मानव वर्तमान को भूलकर भूत और भविष्य के मध्य जीता है। भूत के क्षणों को स्मरण कर राग-द्वेष के झंझावाती थपेड़ों में स्वयं को पीड़ित करता है और भविष्य के क्षणों की कल्पना में नाना संकल्प-विकल्पों के जाल बुनता हुआ उसमें निरन्तर उलझता जाता है, जो उत्तरोत्तर बन्ध का कारण बनता है। वर्तमान क्षण की प्रेक्षा की साधना से साधक राग द्वेष मान मत्सर आदि विकारों से और अनन्त संकल्प-विकल्पों के ज्ञान से मुक्त हो जाता है। इसीलिए आचारांग सूत्र में कहा है 'खणं जाणाहि पंडिए' अर्थात् जो वर्तमान क्षण को जानता है, वही ज्ञानी है। वर्तमान क्षण की प्रेक्षा एकाग्रता का उत्कृष्टतर रूप है, जहाँ सूक्ष्मतम कालबिन्दु पर चित्त की। एकाग्रता होती है। इस प्रेक्षा को पतञ्जलि स्वीकृत निर्विचार समाधि के समानान्तर कहा जा सकता है। जिस प्रकार आधुनिक विज्ञान |