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| अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
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होता है। वह योग मन-वचन-काय से उत्पन्न होता है। कर्मों का बन्ध कषाय ही अनन्तानुबन्धी कषाय कहलाती है जो मिथ्यात्व की भावों के निमित्त से होता है और वह भाव रति-राग-द्वेष-मोह सहित सहगामी है। मिथ्यात्व की ग्रंथि टूटते ही अनन्तानुबन्धी कषाय का होता है (गाथा ९६८)” सिद्धान्त चक्रवर्ती वसुनन्दी ने मूलाचार की अभाव हो जायेगा। ऐसा नहीं है कि अनन्तानुबन्धी कषाय को मंद आचार वृत्ति टीका में उक्त भाव को इस प्रकार स्पष्ट किया है। करने से मिथ्यात्व की ग्रंथि टूटे, क्योंकि कषाय भाव मंद करने या 'मन-वच-काय के कर्म का नाम योग है, ऐसा सूत्रकार का वचन । रोकने का भाव भी कर्त्तापने की पुष्टि है, जो जैनागम को इष्ट नहीं है। 'भाव' के निमित्त से बन्ध अर्थात् आत्मा के साथ संश्लेष है। आत्मा तो ज्ञायक अकर्ता-अबद्ध है। सम्बन्ध होता है जो स्थिति और अनुभाग रूप है। 'स्थिति और
_कर्म बन्ध के भेद-दो परस्पर विरोधी द्रव्यों के मध्य बन्ध के अनुभाग कषाय से होते हैं' ऐसा वचन है। 'अथ को भाव इति प्रश्ने
चार अंग हैं-(१) ज्ञान स्वभावी जीवात्मा, (२) जीवात्मा का मोह भावो रति राग द्वेष मोह युक्तो मिथ्यात्वासंयम कषाया इत्यर्थ इति।।
राग द्वेष युक्त विभाव भाव, (३) पुद्गल के कर्म बन्धन योग्य भाव क्या है? रतिराग द्वेष मोह युक्त परिणाम भाव कहलाते हैं।
परमाणु और (४) उदय में आने वाले पूर्व वद्ध द्रव्य-कर्म। इनके अर्थात् मिथ्यात्व, असंयम और कषाय भाव स्थिति बंध और
मध्य तीन प्रकार का बन्ध होता है-पहला- जीव बन्ध जो जीव के अनुभाग बन्ध के कारण है।” आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार गाथा
मोह राग द्वेष रूप पर्यायों के एकत्व-भाव से होता है। इससे १८८ में 'सपदेसो सो अप्पा कसायिदो मोह राग दोसेहि' कहकर
क्रोधादिक मनोविकारों का विस्तार निरन्तर होता जाता है। दूसराइसी भाव की पुष्टि की है। आचार्य भगवन्तों के इन कथनों के
अजीव-बंध जो पुद्गल कर्मों के स्निग्ध-रूक्ष स्वभाव के कारण स्पर्श सन्दर्भ में संसार दुख के मूल अर्थात् मिथ्यात्व को कर्म-बन्ध में गौण
विशेषों के एकत्व-भाव से होता है। तीसरा-उभय बन्ध जो जीव या अकार्यकारी जैसा कहना युक्ति-आगम के भावों के अनुकूल
तथा पुद्गल-कर्म के परस्पर भावों के निमित्त मात्र से उनके सिद्ध नहीं किया जा सकता। इस सम्बन्ध में विवेक संगत विचारणा
एकक्षेत्रावगाह सम्बन्ध से होता है। इस प्रकार विभावों से विभावों अनिवार्य है।
का बन्ध होता है । कर्मों से कर्मों का बन्ध होता है। और जीव तथा षटखंडागम के बन्ध स्वामित्व विचय, खण्ड ३ की पुस्तक ८ में । कर्मों के भावों के परस्पर निमित्त से उनके मध्य एकक्षेत्रावगाह गुणस्थानों की दृष्टि से कर्म-बन्ध-विधान भी इसी तथ्य की पुष्टि सम्बन्ध होता है। यह सम्बन्ध भी ऐसा होता है कि कर्म के प्रदेश करता है-"प्रथम गुणस्थान में चारों प्रत्ययों (अर्थात् मिथ्यात्व, आत्मा का स्पर्श भी नहीं कर पाते। शुद्ध ज्ञान स्वभावी पर्याय असंयम, कषाय और योग) से होता है। इससे ऊपर के तीन कर्म-आवद्ध होती है। यह तभी सम्भव है जब जीव कर्मोदय जन्य गुणस्थानों में मिथ्यात्व को छोड़कर शेष तीन प्रत्यय संयुक्त बंध
क्रोधादिक विकारी भावों को अपना न माने और उनका मात्र होता है। संयम के एकदेश रूप देश संयत गुणस्थान में दूसरा
ज्ञायक ही बना रहे। आत्मा का ज्ञायक साक्षी भाव स्वभाव है। इससे असंयम प्रत्यय मिश्र रूप तथा उपरितन कषाय व योग ये दोनों
नवीन कर्म बन्ध की प्रक्रिया रुकती है और कर्म से निष्कर्म का प्रत्ययों से बन्ध होता है। इसके ऊपर पाँच गुणस्थानों में कषाय
मार्ग प्रशस्त होता है जो मोक्ष मार्ग कहलाता है। और योग इन दो प्रत्ययों के निमित्त से बन्ध होता। पुनः उपशान्त मोहादि तीन गुणस्थानों में केवल योग निमित्तक बन्ध होता है।
___मोक्ष मार्ग का स्वरूप-तत्वार्थ सूत्र के प्रथम अध्याय का प्रथम इस प्रकार गुणस्थान क्रम में आठ कर्मों के ये सामान्य प्रत्यय हैं
सूत्र है-'सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग' अर्थात् सम्यग्दर्शन, (पृष्ठ २४)।
सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र इन तीनों की एकता ही मोक्ष मार्ग है।
इससे आत्मा कर्मों की पराधीनता से मुक्त होकर स्वावलम्बी बनता कर्म-बन्ध में इतना विशेष है कि मिथ्यात्व आदिक १६ कर्म
है। इसका अर्थ है ज्ञान-दर्शन स्वरूप आत्मा का अपने स्वभाव में प्रकृतियों का बन्ध मिथ्यात्व निमित्तक है क्योंकि मिथ्यात्व के उदय
श्रद्धान या रुचि, उसका सम्यक ज्ञान और आत्म रमणता ही के बिना इनके बन्ध का अभाव है। २५ कर्म प्रकृतियाँ
मोक्षमार्ग है। यह तभी सम्भव है जब आत्म स्वभाव साधना से इन अनन्तानुबन्धी कषाय निमित्तक हैं, १० कर्म असंयम निमित्तक हैं,
गुणों के प्रतिपक्षी कर्म और उनके कर्मों के कारक मिथ्यात्व, ४ प्रत्याख्यानावरण अपने ही सामान्य उदय निमित्तक हैं, ६ कर्म
असंयम और कषाय भावों का अभाव हो जाये। यह कार्य संवर प्रमाद निमित्तक हैं, देवायु मध्यम विशुद्ध निमित्तक है, आहारद्विक
और निर्जरा पूर्वक होता है। विशिष्ट राग से संयुक्त संयम निमित्तक हैं, और परभव निबन्धक सत्ताईस कर्म एवं हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद और चार
धर्म का आधार है अटूट-विश्वास, अपने आराध्य के प्रति। संज्वलन कषाय, ये सब ३६ कर्म कषाय विशेष के निमित्त से जैन-दर्शन में किसी परम शक्ति को आराध्य नहीं माना गया। एक बंधने वाले हैं, क्योंकि इसके बिना उनके भिन्न स्थानों में बन्ध । मात्र अपनी आत्मा ही परम देव और आराध्य है। आत्मा का व्युच्छेद की उत्पत्ति नहीं बनती (वही पृष्ठ ७६.७७)। इन अनुभव ही धर्म की पहली कक्षा है जहाँ से कर्मों का प्रवेश रुकता आगम-प्रमाणों के संदर्भ में कर्मबन्ध में मिथ्यात्व और कषाय भावों है। आगम में कहा है-आश्रव निरोधः संवरः'। जब मन-वचन-काय की भूमिका स्पष्ट होती है। मिथ्यात्व (दर्शन मोह) के उदय में उत्पन्न की प्रवृत्ति से निवृत्ति तथा निर्विकार-निर्विकल्प शुद्ध आत्म स्वरूप यमनएलयलयर
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