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| अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
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का सादि-अनादि, ध्रुव और अध्रुव बन्ध होता है। निरन्तर-बंधी ५४ । कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं। चार सुज्ञान, तीन अज्ञान, कर्म प्रकृतियाँ हैं। सान्तर-बंधी ३४ कर्म प्रकृतियाँ हैं। सान्तर- तीन दर्शन, पाँच लब्धि, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व एवं चारित्र, और निरन्तर बंध वाली ३२ कर्म प्रकृतियाँ हैं। मिथ्यात्व आदि २७ । देश संयम यह अठारह भाव क्षायोपशमिक भाव होते हैं। इनमें चार कर्मप्रकृतियों का बन्ध तब होता जब वही कर्म प्रकृतियाँ उदय में सुज्ञान, अवधि दर्शन, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व एवं चारित्र तथा देश आती हैं, इन्हें स्वोदय-बंधी कहते है। कर्म प्रकृतियाँ अत्यन्त घातक संयम आत्मा के स्वभाव-भाव में साधक होते हैं। शेष तीन अज्ञान, और दुर्दमनीय होती हैं। तीर्थंकर, नरकायु आदि ग्यारह कर्म दो दर्शन एवं पाँच लब्धि विभाव-भाव होने के कारण दुख-स्वरूप प्रकृतियाँ परोदय बंधी हैं। शेष ८२ कर्म प्रकृतियाँ स्वोदय बंधी हैं। हैं। औपशमिक भाव कर्मों के उपशम से होते हैं। यह दो प्रकार का भावों के अनुसार पूर्ववद्ध कर्म प्रकृतियों में संक्रमण
है-पहला औपशमिक सम्यक्त्व और दूसरा औपशमिक चारित्र। यह (सातावेदनीय से असातावेदनीय आदि), उत्कर्षण, अपकर्षण,
दोनों भाव आत्म स्वभाव में साधक होते हैं। क्षायिक भाव प्रतिपक्षी उदय-उदीरणा, उपशान्तकरण आदि होता रहता है। इस दृष्टि से
कर्मों के क्षय से प्रकट होते हैं। गृह नौ प्रकार के हैं केवल दर्शन, आत्म स्वभाव और विभाव-भाव का स्वरूप समझना आवश्यक है।
केवल ज्ञान, क्षायिक सम्यक्त्व और चारित्र तथा दान-लाभ
भोग-उपभोग-वीर्य की पाँच लब्धियाँ। घातिया कर्मों के क्षय होने पर कर्म-बन्ध का आधार विभाव-भाव-चेतन और जड़-कर्म
शुद्ध ज्ञान-दर्शन युक्त शुद्ध पर्याय का उदय होता है। जो शक्तियों के बन्ध का कारण आत्मा के विभाव-भाव हैं। भाव से ही।
कार्य-परमात्मा कहलाता है। इस प्रकार जीव के शुद्ध स्वभाव रूप मोक्ष, स्वर्ग और नरक मिलता है। भाव से ही उपलब्धि होती है।
परम पारिणामिक भाव का आश्रय लेकर क्षयोपशम और उपशम भाव विहीन क्रिया निरर्थक होती है। जैसा भाव, वैसा कार्य। जैसा
रूप सुज्ञान एवं अपूर्ण शुद्ध पर्याय के साधन से वीतराग रूप शुद्ध कार्य, वैसा फल।
स्वभाव पर्याय का उदय होता है। इनसे प्रतिपक्षी क्रोधादिक प्रश्न यह है कि भाव क्या है? चेतन पुद्गल द्रव्यों के । औदयिक-विभाव भाव तथा अज्ञान आदि क्षायोपशमिक विभवों से अपने-अपने स्वभाव-भाव होते हैं, वे सब भाव कहलाते हैं। भवन । उत्पन्न अशुद्ध-पर्याय का विनाश हो जाता है। कर्म-बंध एवं निष्कर्म भवतीति वा भावः अर्थात् जो होता है, सो भाव है। इसमें होना' हेतु भावों की प्रकृति-स्वरूप और उनकी भूमिका सम्यक रूप से शब्द महत्वपूर्ण है जो करने या न करने के भाव से रहित है। समझना आवश्यक है। 'भावः चित्परिणामो' के अनुसार चेतन के परिणाम को भाव कहते
'सुद्धं सुद्ध सहाओ अप्पा अप्पम्मितं च णायव्वं' हैं। 'शुद्ध चैतन्य भावः' के अनुसार सहज शुद्ध चैतन्य भाव ही शुद्ध
(भाव पाहुड-७७) के अनुसार जीव का शुद्ध भाव है सो अपना भाव है। इस प्रकार आत्मा का शुद्ध ज्ञान-दर्शनादि भाव ही उसके
शुद्ध स्वभाव आप में ही है। शेष विभाव भाव अशुद्ध हैं। भावों को भाव हैं। आत्मा अपने शुद्ध चैतन्यभाव में रहे, यही उसका धर्म है।
निम्न चार्ट द्वार स्पष्ट किया है। किन्तु कर्मों के उदय के अनुसार मोह-राग-द्वेष भाव आत्मा में उत्पन्न होते रहते हैं, जो अधर्म रूप है।
भाव/परिणाम जब जैसा भाव होता है, वैसा ही कर्म-बन्ध होता है। इस प्रकार
शुद्ध स्वभाव भाव
अशुद्ध विभाव-भाव आत्मा के भाव दो प्रकार के होते हैं, पहला-कर्म-निरपेक्ष भाव और
शुद्ध ज्ञाता-द्रष्टाभाव
मोह-राग-द्वेष के भाव दूसरा कर्म सापेक्ष भाव। कर्म-निरपेक्ष भाव जीव का त्रिकाली पारिणामिक भाव है जो प्रत्येक जीव के साथ प्रत्येक अवस्था में
मोह
राग सदैव बना रहता है। यह भाव जीवों की मूल शक्ति है जो जीवत्व
अशुभ भाव शुभ-अशुभ भाव अशुभ भाव से सम्बद्ध है। जीवत्व भाव शुद्ध ज्ञाता-द्रष्टा भाव है जो कारण स्वभाव-विभाव में उपयोग की भूमिका-जीव चेतना स्वरूप है। Peo परमात्मा के रूप में विद्यमान रहता है। जीव भी भव्य और अभव्य जीव की परिणति या व्यापार उपयोग कहलाता है। उपयोग दो - दो प्रकार के होते हैं। भव्य जीव परमात्म स्वरूप शुद्ध होने की प्रकार का होता है-ज्ञान उपयोग और दर्शन उपयोग। यह वे साधन GOODS पात्रता रखते हैं।
हैं जिनसे जीव के भावों की परिणति व्यक्त होती है। 'दर्शन' Dee जीव के कर्म-सापेक्ष भाव चार प्रकार के हैं-औदयिक भाव,
अन्तर्चित प्रकाश का सामान्य प्रतिभास होने से वचनातीत, क्षायोपशमिक भाव, औपशमिक भाव और क्षायिक भाव। औदयिक
निर्विकल्प और अनुभवगम्य होता है। 'ज्ञान' बाह्य पदार्थों का विशेष भाव मोह-राग-द्वेष के विभाव भाव हैं जो पूर्व-वद्ध कर्मों के उदय
प्रतिभास होने के कारण वचन-गोचर और सविकल्प होता है। जीव के कारण पर-वस्तुओं के निमित्त से उत्पन्न होते हैं। यह भाव पुनः
का ज्ञान-दर्शनात्मक व्यवहार शुद्ध, शुभ और अशुभ रूप तीन कर्मबन्ध के कारण बनते हैं। मनुष्यादि चार गति, क्रोधादि चार
प्रकार का होता है। जब जीव का उपयोग ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव में कषाय, तीन वेद, छह लेश्या, मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम और
मात्र 'होने-रूप' होता है तब वह निर्विकल्प और शुद्ध होता है, जो असिद्धत्व यह इक्कीस आत्मा के विभाव-भाव हैं। क्षायोपशमिक भाव शुद्धोपयोग कहलाता है। जब जीव का ज्ञान-दर्शनात्मक व्यापार पर
द्वेष
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