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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । इच्छामणिच्छाए जिणित्ता सुहमेधति ऋषिभा. ४०/91 इच्छा व द्वन्द्व/संघर्ष की परिस्थितियां बनी हैं। और इस संघर्ष/द्वन्द्व को आकांक्षाओं से रहित व्यक्ति फिर चाहे वह 'भूमि पर सोये, भिक्षा / वाधित करने में अगर कोई समर्थ है, तो वह है 'अपरिग्रह। का भोजन करे, पुराने/जीर्ण कपड़े पहने और वन में रहे वह
अपरिग्रह = अनासक्त भाव से जीवन जीने वाला न स्वयं निस्पृही चक्रवर्ती से अधिक सुख भोगता है
दुःखी होता है और न किसी को दुःख देता है। अपरिग्रही तो 'मित्ती भूशय्या भक्ष्यमशनं, जीर्णवासो वनं गृहम् ।
मे सव्व भूएसु' इस आगमिक सूत्र को ही अपने जीवन का आदर्श तथापि निःस्पृहस्याहो! चक्रिणोष्यधिकंसुखम् ॥ज्ञानसार। मानता है। अपरिग्रह मेरे-तेरे के द्वन्द्व से ऊपर उठकर तेरा-मेरा, अपरिग्रह = जागरण-मूर्छा परिग्रह है। जागरण अपरिग्रह है।
मेरा-तेरा, न मेरा, न तेरा और न मेरा और न मेरा इस स्वर्णाक्षर जागरण कहते हैं अप्रमत्त अवस्था को। अप्रमत्त व्यक्ति दुःख
सूत्र से प्रवर्तित होता है। जब इतनी विशाल-विराट् भावना हृदय की निवारण का उपाय बाह्य जगत में नहीं देखकर अपने आपमें/भीतर
भावभूमि पर अंकुरित होने लगती है तब मानव, मानव का भेद देखता है। जो अपने भीतर में खोजता है उसे मार्ग अवश्य मिलता
नहीं होता और चारों ओर समरसता का प्रवाह बहने लगता है। है मुक्ति का। जो भी जीवनगत दुःख है, वह कहीं बाहर से, किसी
अपरिग्रही ही अकिंचन जीवन जीता हुआ एक ऐसे अविरल संदेश अन्य से हमारे पास नहीं आया, अपितु वह अपने अन्दर से ही
को प्रचारित करता है कि जो पूर्ण मानव समाज की संरचना में प्रकट हुआ है। और अन्दर से ही दुःख-मुक्ति का उपाय हस्तगत
सहायक बनता है। जैन धर्म के २४ ही तीर्थंकरों का जीवन होगा। जीवनगत साधनों के अभाव की पूर्ति करना दु:ख के बाह्य
अपरिग्रहता की एक बेजोड़ और आदर्श मिशाल है। जिन्होंने स्वयं मुक्ति का हेतु है तो अभाव क्यों है? हम कारण को ही नष्ट करना
अपरिग्रही जीवन जीकर मानव समाज को जागृत किया है कि आन्तरिक मुक्ति है। परिग्रहावस्था में/प्रमत्तावस्था में अभाव की पूर्ति
प्राणी-प्राणी में कोई अन्तर नहीं है। सब सुख और शांति के चाहक की जाती है, जबकि अपरिग्रहावस्था/अप्रमत्तावस्था में मूल कारण
हैं। सबका अपना अधिकार है कि वे सुखी जीवन जीएँ। जैन को ही निर्मूल किया जाता है। प्रमत्त व्यक्ति साधन की उपलब्धि में
तीर्थंकरों के इस जीवन्त जीवन संदेश से ही इस तथ्य की पुष्टि ही दुःख के निवारण का हेतु मानकर साधनों की प्राप्ति में तत्पर
होती है-अपरिग्रह ही प्रेम का निर्माण करता है और द्वन्द्व का
विसर्जन। जीवन जीने की आवश्यक वस्तु परिग्रह नहीं है अपितु बनता है, किन्तु वह सोच नहीं पाता है कि साधन की उपलब्धि दु-खवृद्धि का कारण भी हो सकती है। जैसे-जैसे यह भ्रमणा टूटती
अनावश्यक/अन्य के हक की वस्तुओं का वृथा संग्रह ही परिग्रह है।
वृथा और अनावश्यक परिग्रह का विसर्जन ही अपरिग्रह का है कि बाह्य परिग्रह सुख का कारण है, वैसे-वैसे अप्रमत्त स्थिति
आधार बनता हुआ मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और बनती जाती है। भ्रमणा का टूटना ही अपरिग्रह है-जागरण है।
अन्तर्राष्ट्रीय द्वन्द्व का विनाशक बनता है। जब साधनों का संविभाग अपरिग्रह से द्वन्द्व विसर्जन-परिग्रह-अपरिग्रह/मूर्छा-जागरण की होगा तब द्वन्द्व संघर्ष की उत्पत्ति कैसे होगी? संविभाग करना इतनी लम्बी चर्चा के बाद अब हमें यह चिन्तन करना है कि सुख-साधनों का बाह्य परिग्रह का, सुख का राजमार्ग है। अपरिग्रह-जागरण भाव क्या कार्य करता है? इसका क्या निष्कर्ष । उत्तराध्ययन सूत्र में श्रमण भगवान महावीर प्रभु ने यही स्पष्ट घोष है ? अपरिग्रह की स्थिति जब मानव जीवन में प्रकट होती है तब उसका चिंतन सद्गामी होता है और सच्चिंतन के प्रकाश में व्यक्ति
'असंविभागी न हु तस्स मोक्खो।' यह अनुभव/महसूस करने लग जाता है कि वस्तुतः परिग्रह ही मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष/
अर्थात् स्वयं के साधनों और अधिकारों का संविभाग करे। द्वन्द्व का जनक है। क्योंकि परिग्रह ममत्व और आसक्तभाव को पैदा
इसके बिना मुक्ति नहीं। करने वाले हैं। जब-जब भी व्यक्ति के मन में ममत्व-आसक्त भाव अपरिग्रह और सर्वोदय-चरम तीर्थंकर वर्धमान महावीर प्रभु उठता है, तब-तब निश्चित संघर्ष-द्वन्दू भी पैदा होता ही है। चाहे द्वारा प्रवर्तित 'अपरिग्रह' का स्वरूप ही सर्वोदय सिद्धान्त का फिर बाह्य परिग्रह की स्थिति हो या आभ्यन्तर परिग्रह की। हमें आधारभूत रहा है। भारतवर्ष के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने सर्वोदय प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है कि ममत्व-आसक्तशील स्वयं दुःख की सिद्धान्त की स्थापना की। सर्वोदय का शाब्दिक अर्थ है 'सबका अनुभूति करता हुआ अन्य परिवारादि को भी दुःख में ढकेलने का । उदय !' कोई भी पिछड़ा न रहे, सबको अपना अधिकार मिलना प्रयास करता है। बाह्य परिग्रह की आसक्ति ही मानव-मानव में, चाहिए। महात्मा गाँधी के इस सर्वोदय शब्द का बीज भी जैन दर्शन परिवार में, समाज और राष्ट्र में विग्रह पैदा करती है। हर व्यक्ति, के 'संविभाग' शब्द में या अपरिग्रह शब्द में मिलता है। यदि इसी समाज और राष्ट चाहता है कि बस में ही प्रमख रहँ. मेरी ही सत्ता शब्द को ढूँढेंगे तो वह जैनाचार्य समन्तभद्र के द्वारा प्रयुक्त किया हो, मेरा ही वर्चस्व हो, स्वामित्व हो और शेष सर्व हमसे नीचे गया है सर्वप्रथमस्थित रहें। प्रत्येक व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की इस भावना से ही
सर्वापदान्तकर निरन्तं, सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव।'
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