Book Title: Pushkarmuni Smruti Granth
Author(s): Devendramuni, Dineshmuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

View full book text
Previous | Next

Page 650
________________ Ka 00.00% atoose PO. 9002050 60%asoolates Dospar ५१६ "deyo 80.90-300:0:00:00:00:00ane D000-800 0.00000 POSTED उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ श्रमण-संस्कृति-स्वरूप एवं तत्त्व साथ उसने काफी समझौता भी किया। श्रमण-साधु, मुनि और सन्तों की परम्परा पर श्रमण-संस्कृति आधारित है। तमिलनाडु में जैन यद्यपि इतिहास अपने तथ्यमूलक आधार पर जैनधर्म के २३वें मात्र को समनार कहा जाता है। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि तीर्थकर पार्श्वनाथ तक ही अपनी पहुँच रखता है। परन्तु श्रावकों की भी श्रमण-संस्कृति में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। श्रमण-परम्परा आज से लाखों वर्ष पूर्व आदि तीर्थंकर ऋषभदेव से ही प्रारम्भ होती है। यह आस्थामूलक मान्यता है। जैन पुराणों में श्रमण शब्द में तीन शब्द गर्भित हैं-श्रम, सम, शम। अर्थात् एतादृश वर्णन है। हम ऐतिहासिक चक्र में न पड़कर सम्प्रति इतना निष्ठापूर्ण साधना, प्राणीमात्र के प्रति समत्व की भावना और परम ही मानलें कि श्रमण-संस्कृति व्यवस्थित रूप से पार्श्वनाथ के समय शमात्मक मनोभावमय जीवन ही श्रमण-आदर्श रहा है। आधुनिक में थी। भारतवर्ष सामान्यतः अनेक संस्कृतियों का संगम-स्थल है, युग के प्रख्यात विचारक एवं नेता क्रोपाटकिन, मार्क्स एवं महात्मा किन्तु भारतीय-मूल की संस्कृतियों के रूप में केवल वैदिक एवं गांधी ने अपने-अपने ढंग से मानव जाति का विकास माना है। श्रमण (वैदिकेतर) संस्कृति को ही स्वीकार किया गया है। श्रमण महात्मा जी की प्रक्रिया श्रमण धारा को आत्मसात् करके चली है। धारा के अन्तर्गत जैनों एवं बौद्धों का साहित्य लिया जाता है तथा "सन् १९४६ में आगा खाँ ने पूना में हिन्दू-मुस्लिम समस्या पर वैदिक धारा में इतर सब साहित्य लिया जाता है। यह स्थापना या बातचीत करने के बाद महात्मा जी से पूछा-"मार्क्स के दर्शन के मान्यता सर्वधा निर्दोष नहीं है। श्रमणों के जैन, बौद्ध, आजीवक, विषय में आपकी क्या सम्मति है?" महात्मा जी ने तुरन्त ही उत्तर गैरिक आदि अनेक सम्प्रदाय थे। सांख्य दर्शन भी वैदिक धारा का दिया-मेरा आदर्श वही है जो मार्क्स का था, यानी शासन का सूखी विरोधी था। वैदिक धारा को आर्यों की धारा कहा जाता है और पत्तियों की तरह झड़ जाना, लेकिन मैं यह यकीन नहीं करता कि आर्यों के आगमन के पूर्व भारत में द्रविड़ सभ्यता थी. श्रमण धारा मार्क्स के तरीके से हम कभी भी अपने उद्देश्य में सफल हो सकेंगेथी। अतः श्रमण धारा की प्राचीनता को सहज ही समझा जा सकता । यानी तमाम सरकारों का खात्मा हो जाएगा बल्कि उसके विपरीत है। यहाँ मेरा उद्देश्य देन पर विचार करना है, न प्राचीनता पर। मेरा यह विश्वास है कि अहिंसा तथा अपनी अन्तरात्मा की ध्वनि भारत में और सम्पूर्ण एशिया में अध्यात्म प्रधान श्रमणधारा के अनुसार काम करने से ही हम अपने लक्ष्य पर पहुँचेंगे। उसी से पूर्वतः चली आ रही थी; वैदिक धारा भी अपने व्यापक स्तर पर शासन झड़ जाएंगे। किसी समाज की सभ्यता की यह कसौटी नहीं चली; परन्तु धीरे धीरे वह ऋषिमूलक अर्थात् यज्ञ एवं कर्मकाण्ड है कि उसने प्राकृतिक शक्तियों पर कितनी विजय प्राप्त कर ली है। मूलक होकर रह गयी। उसमें पशुहिंसा बलवती हो गयी। उसकी और न साहित्य तथा कला में पारंगत होना ही उसकी कसौटी है; शाखाओं में अन्तर्विरोध उत्पन्न हुआ। उपनिषदों में विशुद्ध अध्यात्म | बल्कि उस समाज के सदस्यों में पारस्परिक बर्ताव में तथा प्राणीमात्र एवं ज्ञान की चर्चा है। उनमें ज्ञान की सर्वोपरिता, स्वीकार की गयी के प्रति कितनी करुणा, उदारता या मैत्री है। बस यही उदारता की है। उपनिषदों का यह दृष्टिकोण अपना निजी हो सकता है, परन्तु । सबसे बड़ी कसौटी है।" इसके भी प्रमाण हैं कि उस समय प्रचलित श्रमण धारा ने भी इसे स्पष्टबोध एवं वर्गीकरण की दृष्टि से श्रमण-संस्कृति के मूल प्रभावित किया है। प्रभाव ग्रहण करना और दूसरों से वरेण्य को । संघटक तत्त्व ये हैंलेना यह सहज प्रवृत्ति है। स्पष्ट है कि श्रमण धारा मुनियों और १. आध्यात्मिकता, २. अहिंसा, ३. अनेकान्त, ४. अपरिग्रह, सन्तों की धारा के रूप में विकसित हुई, तो अन्य धाराएँ ऋषियों ५. शील, ६. समता, ७. सैद्धान्तिक दृढ़ता- निजविवेक, ८. की धाराओं के रूप में। यह ऋषि-मुनि का एक कालिक एवं आस्तिकता, ९. कर्मसिद्धान्त एवं वस्तु स्वातन्त्र्य, १०. लोकजीवन। घटनात्मक अन्तर था। उक्त दशलक्षणी या दश तात्त्विक श्रमण-संस्कृति के ये सभी श्रमण-संस्कृति अध्यात्म-प्रधान संस्कृति है। अहिंसा और लक्षण संश्लिष्ट एवं अविभाज्य हैं। व्यवहार दृष्टि से ही विवेच्य हैं। वैचारिक समभाव के माध्यम से मानव आत्मा की विशुद्ध अवस्था प्राप्त कर सकता है। इसी जीवन-दृष्टि के आधार पर समस्त मानव अध्यात्मदृष्टि-जैनधर्म अपनी सम्पूर्णता में अध्यात्म प्रधान धर्म जाति इस संसार में भी समता, सुख और शान्ति से रह सकती है। है। उसकी संस्कृति, दर्शन एवं समस्त आचार-व्यवहार भी मूलतः यही इस संस्कृति की अन्तरात्मा है। बौद्धों और जैनों में प्रायः स्थूल और अन्ततः अध्यात्मपरक है। आध्यात्मिक एवं नैतिक विशुद्धता व स्तर पर एकता थी। वे कर्मकाण्ड, यज्ञ और पशुबलि के समान रूप को श्रमण-धारा में सर्वोपरि स्थान है। आत्मा की निर्विकार अवस्था से विरोधी थे। ईश्वरवाद के भी वे समर्थक न थे। उनकी ज्यों-ज्यों बढ़ती जाएगी, मानव उतना ही स्वतन्त्र और विरोधात्मक दृष्टि में सीमित समानता थी। उनमें अहिंसा का भी परमात्मत्वमय बनता जाएगा। अतः बाह्य आडम्बर और क्रिया कांड सीमित साम्य था। बौद्ध धारा में मांसाहार का अवकाश था और से बचने का श्रमण सदा आदेश देते हैं। आचरण पर भी उतना बल न था। विदेशों में जाकर बौद्ध धर्म आत्मा का स्वरूप-अजरामर चैतन्यशक्ति ही आत्मा है। पर्याप्त व्यापक किन्तु शिथिल भी हो गया। विदेशी वातावरण के जैनदर्शन के अनुसार आत्मा अथवा जीव स्वतन्त्र अस्तित्व वाला 5 Post 6:00.509:00.00000. 5 20.0RRISHPRADED 18000000000000 GSI-00-00.9956090020 4000.0005lovejabgbrary h0000000.00ALOne24ta

Loading...

Page Navigation
1 ... 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844