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| अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
५१७ द्रव्य है। समस्त द्रव्यों में जीव सर्वश्रेष्ठ है। आत्मा एक नहीं अनन्त दशवैकालिक की यह गाथा भी श्रामणिक अहिंसा का सशक्त हैं। आत्मा का चैतन्य ज्ञान, भाव शक्ति एवं क्रिया रूप में प्रकट । उद्घोष करती हैहोता है। आत्मा सहज रूप से ज्ञाता, कर्ता और भोक्ता है। आत्मा
“सव्वे जीवा इच्छंति जीविउं न मरिज्जिउं। संसार में रहकर सुख-दुःखात्मक शुभ-अशुभ कर्मों को भोगता रहता
तम्हा पाणवहं घोरं, णिग्गन्था वज्जयन्ति णं ॥१0 है। मुक्त हो जाने पर वह परम निर्विकार एवं स्वतन्त्र हो जाता है। प्रत्येक आत्मा अनादिकाल से कर्मों से बद्ध है अतः वह पुनः पुनः
अर्थात् सभी जीव जीवन चाहते हैं, मरण नहीं। अतएव निर्ग्रन्थ जन्म-मरण के चक्र में घूमता रहता है। प्रत्येक आत्मा सिद्ध-स्वरूप मुनि घोर प्राणिवध का त्याग करते हैं। है। साक्षात् सिद्ध भगवान् सिद्ध (कर्ममुक्त) हैं और अन्य प्राणी
इसी अहिंसक दृष्टि की आवश्यकता आज के मत्स्यन्याय-जीवी 30506 कर्मयुक्त संसारी हैं। कर्म के आवरण को अलग करके देखने पर जगत को है। प्रत्येक आत्मा सिद्धतुल्य है। प्रत्येक आत्मा अपने सुख-दुःख एवं
"धर्म का मौलिक रूप अहिंसा"११ है, सत्य, अचौर्य आदि उत्थान-पतन का स्वयं अधिकारी एवं उत्तरदायी है। किसी ईश्वरीय
उसका विस्तार है-“अवसेसा तस्स रक्खहा"-शेष व्रत अहिंसा की शक्ति का इसमें कोई योग नहीं है।
रक्षा के लिए हैं। अहिंसा की पूर्णता के लिए हमें अपनी प्रत्येक आध्यात्मिक धरातल पर आत्मा या जीव को तीन प्रकार का
गतिविधि का सूक्ष्म निरीक्षण करते रहना चाहिए। हमें शास्त्रनिर्दिष्ट माना गया है-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। संसारलिप्त
आरम्भी, उद्योगी, विरोधी एवं संकल्पी हिंसा से विरत होना चाहिए। और शरीर को ही आत्मा समझने वाला जीव बहिरात्मा है। संसार ये चारों हिंसक प्रणालियाँ क्रमशः अधिकाधिक अनिष्टकर एवं से स्वयं को पृथक समझने वाला दृढ़ निश्चयी जीव अन्तरात्मा है
घातक है। मानव सभ्यता का इतिहास लगभग दस हजार वर्ष का और परम पद प्राप्त व्यक्ति (जीव) परमात्मा कहलाता है।
है। इस कालावधि में मानव ने क्रमशः सभ्यतामूलक (सांसारिक) “एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरगं"ट
विकास बहुत अधिक किया है। उसने जल, थल, नभ को निचोड़
डाला है। समस्त संसार को क्षण भर में ध्वस्त करने की भी उसने अर्थात् शरीर से पृथक आत्मा है, अतः भोगलिप्त शरीर को
शक्ति प्राप्त करली है। भौतिक सुविधाओं की दिशा में उसने आज तपश्चर्या द्वारा धुन डालना चाहिए।
स्वर्ग को भी उपहसित कर दिया है। उसने प्रकृति की सम्पूर्णता पर स्पष्ट है कि श्रमण संस्कृति में जीवात्मा के आन्तरिक सहज विजय पाने का दावा किया है, पर वह मानव-आज का मानव गुणों को ही महत्त्व दिया गया है।
स्वयं से-अन्तरात्मा से अपनी संस्कृति से उतना ही अधिक कटता आध्यात्मिक एवं नैतिक विशुद्धता को श्रमण धारा में सर्वोपरि
और दूर होता चला गया है। विश्व ध्वंस में पूर्ण समर्थ स्थान है। अध्यात्म की रीढ़ अहिंसक-जीवन है।
परमाणु-बम-रूपी ज्वालामुखी पर आज विश्व-मानवता बैठी हुई है।
कभी भी विस्फोट हो सकता है। आशय यह है कि आज अहिंसा की अहिंसा-सार्वभौम सहअस्तित्वमय निरापद जीवन के प्रति
विश्व को गत युगों की तुलना में बहुत अधिक आवश्यकता है। सद्भावमय जीवन दृष्टि अहिंसा है। किसी भी प्राणी को मन, वाणी
आध्यात्मिक मूल्यों का पुनर्जागरण आज पूर्णतया अपेक्षित है। और क्रिया से किसी भी प्रकार का (भावात्मक या शारीरिक) दुःख
महात्मा गांधी ने अहिंसा के मूल तत्त्व को उद्घाटित करते हुए कहा न पहुँचाना अहिंसा है। यह अहिंसा का निषेधात्मक रूप है। सभी
है-"मानव में जीवन-संचार किसी न किसी हिंसा से होता है। प्राणियों के प्रति समभाव रखना, यह अहिंसा का क्रियात्मक रूप है।
इसलिए सर्वोपरि धर्म की परिभाषा एक नकारात्मक कार्य अहिंसा इसके अन्तर्गत अन्य प्राणियों की रक्षा-सुरक्षा का भाव समाहित है।
से की गई है। यह शब्द संहार की संकडी में बंधा हुआ है। दूसरे समस्त श्रमण जीवन का आचार अहिंसा-मूलक है और विचार
शब्दों में यह है कि शरीर में जीवन-संचार के लिए हिंसा अनेकान्तात्मक है। अहिंसा की पूर्णता के लिए यह भी परमावश्यक
स्वाभाविक रूप से आवश्यक है। इसी कारण अहिंसा का पुजारी है कि हम स्वयं तो अहिंसक रहें ही, परन्तु दूसरों के द्वारा भी
सदैव प्रार्थना करता है कि उसे शरीर के बन्धन से मुक्ति प्राप्त हिंसा न कराएँ तथा ऐसी हिंसा का अनुमोदन भी न करें। प्राणीमात्र
हो।"१२ की स्वत्रता और प्राणरक्षा का पूरा ध्यान रखकर ही हमें अपना जीवन निर्धारित करना चाहिए।
हिंसा धर्म और समाज में भी समय-समय पर नये-नये रूप
धारण कर प्रविष्ट होती रही है। श्रमण महावीर के युग में स्थिति "सव्वे पाणा पियाउया, सुह साया, दुक्ख पडिकूला अप्पियवहा।
ऐसी ही थी। धर्माधिकारी धर्म की हिंसामूलक व्याख्या कर रहे थे। पिय जीविणो जीविउकामा, सव्वेसिं जीवियं पियं॥९.
समाज सुधारक भी वर्गवाद, छुआछूत, नारी के प्रति हीन भावना अर्थात् समस्त जीवों को अपने प्राण प्रिय हैं, वे सुख चाहते हैं। तथा नर-शोषण के अनेक उपाय निकाल रहे थे। महावीर ने इस दुख नहीं। सब जीने की इच्छा रखते हैं।
सबके विरुद्ध क्रान्ति का शंखनाद किया। वे एक विराट् सांस्कृतिक मयमयन्यप्राण्यालय एकजनाएयतजयन्तकायम 2600000. 00000000000000
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