Book Title: Pushkarmuni Smruti Granth
Author(s): Devendramuni, Dineshmuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 648
________________ S95 HReso s 906 :00.003060434000 Paco20000 6 2000000000000000%ARo2020%AR GROLavad १५१४ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । धारा ने अध्यात्म, आदर्श एवं नैतिक जीवनदृष्टि को। आज दोनों तयैव तुलया विभिन्नसभ्यतानामुत्कर्षापकर्षी मीयेते। किंबहुना, एक दूसरे के बलाबल को समझ रहे हैं। संस्कृतिरेव वस्तुतः सेतुर्विधतिरेषां लोकानामसंभेदाय।"४ संस्कृति शब्द संस्कृत भाषा का है। सम् उपसर्ग पूर्वक क करणे म अर्थात् किसी देश या समाज के विभिन्न जीवन-व्यापारों में या धातु से सुद् का आगम करके तिन् प्रत्यय मिलाने पर संस्कृति शब्द सामाजिक सम्बन्धों में मानवता की दृष्टि से प्रेरणा प्रदान करने बनता है। संस्कृति का सीधा और सहज अर्थ है-सम्यक् रीति से वाले आदर्शों की समष्टि को ही संस्कृति समझना चाहिए। समस्त किये गये कार्य-अर्थात् परिष्कृत कार्य। सामाजिक जीवन की समाप्ति संस्कृति में ही होती है। विभिन्न आक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार? "The training and सभ्यताओं का उत्कर्ष तथा अपकर्ष संस्कृति द्वारा ही मूल्यांकित refinement of mind, tastes and manners; the किया जाता है। उसके द्वारा ही लोगों को संगठित किया जाता है। condition of being thus trained and refined; the मानव-संस्कृति का सातत्य-जातिगत, धर्मगत एवं भूमिगत intellectual side of civilisation, the acquainting संकीर्ण प्रतिबद्धता को त्यागकर ही विश्वव्यापी मानव-संस्कृति की ourselves with the best that has been known and अखंड धारा को समझा जा सकता है। संस्कृति किसी भी देश या said in the world.” अर्थात् मस्तिष्क, रुचि और जाति की प्रबुद्ध आन्तरिक चेतना की वह स्वस्थ एवं मौलिक आचार-व्यवहार की शिक्षा और शुद्धि, इस प्रकार शिक्षित और } विशेषता है जिसके आधार पर विश्व के अन्य देशों में उसका शुद्ध होने की प्रक्रिया, सभ्यता का बौद्धिक पक्ष, विश्व की महत्त्वांकन होता है। आज किसी भी देश की संस्कृति ऐसी नहीं है सर्वोत्कृष्ट कथित और ज्ञात वस्तुओं से स्वयं को परिचित कराना जो अन्य देशों की संस्कृतियों से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित संस्कृति है। एवं पुष्ट न हो। सजीव संस्कृति सदा उदार एवं ग्रहणशील होती है। Sasa आप्टे की संस्कृत डिक्शनरी के अनुसार संस्कृति की व्याख्या संस्कृति सदा एक विकासशील संस्था के रूप में रहकर ही किसी इस प्रकार है२-To adorn, grace, decorate, (2) to देश या जाति के गर्व का कारण बन सकती है। कुछ मौलिक refine, polish, (3) to purify, (4) to consecrate by विशेषताओं के साथ प्रत्येक संस्कृति के कुछ अन्तर्राष्ट्रीय तत्त्व भी repeating mantras, (5) to cultivate, educate, होते हैं। जो संस्कृति कम ग्रहणशील होती है, या अतीतोन्मुखी होती train, (6) make ready, proper, equip, fitout, (7) to है, धीरे-धीरे वह अपना चैतन्य महत्त्व खोकर मात्र ऐतिहासिक cook food, (8) to purify-cleanse, (9) to collect, heapसंस्था बनकर रह जाती है। किन्तु इतिहास में भी सातत्य और together. अर्थात-सजाना, संवारना. पवित्र करना होना, परिवर्तनशीलता का प्रवाह या क्रम चलता ही रहता है। संस्कृति में वसुशिक्षित करना आदि। भी यही क्रम नितान्त वांछनीय है। संस्कृति में वर्तमान का योग और । डॉ. सम्पूर्णानन्द की संस्कृति सम्बन्धी मान्यता भी अत्यन्त भविष्यत् की सम्भावनाएं सदा अपेक्षित रहती हैं। वह पुरातन और महत्त्वपूर्ण है। वे एक प्रशस्त क्रान्तचेता के रूप में हमारे सम्मुख नवीन का सुन्दर समन्वय है, मात्र प्राचीन उपलब्धियों भी आते हैं। उनके अनुसार३, "वस्तुतः संस्कृति पद्धति, रिवाज या व्याख्यायिका नहीं है। सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक संस्था नहीं है। नाचना-गाना, "हिन्दूसच, जैनसच, बौद्धसच, ईसाईसच या मुस्लिमसच जैसे साहित्य, मूर्तिकला, चित्रकला, गृहनिर्माण इन सबका अन्तर्भाव बोल पढ़े लिखे लोगों को ही नहीं, अनपढ़ को भी बेमतलब जचेंगे। सभ्यता में होता है। संस्कृति अन्तःकरण है, सभ्यता शरीर है। काश ऐसा ही हिन्दू संस्कृति, जैन-संस्कृति, मुस्लिम संस्कृति इत्यादि संस्कृति सभ्यता द्वारा स्वयं को व्यक्त करती है। संस्कति वह साँचा बोलों के साथ भी होता। हमारे कान इन बोलों को भी बे-मतलब है जिसमें समाज के विचार ढलते हैं। वह बिन्दु है जहाँ से जीवन समझते होते, तो आज मनुष्यों की आत्माएँ कहीं ज्यादा मंजी हुई की समस्याएँ देखी जाती हैं।" मिलती, दुनियां के आदमी कहीं ज्यादा सुखी पाये जाते। संस्कृति को चर्चित सभी परिभाषाओं का मथितार्थ यह है कि हमारी मानव संस्कृति के ही नाम से पुकारना ठीक ऊंचता है।"५ जीवन-साधना का साररस ही संस्कृति है अर्थात् हमारी दृढ़ीभूत आज के विश्वप्रसिद्ध वैज्ञानिकों और विचारकों का यह 300000 चेतना-प्रेरक-जीवन की आन्तरिक पद्धति ही संस्कृति है। सुस्पष्ट मत है कि संसार की सभी जातियाँ मूलतः एक ही परिवार छान्दोग्योपनिषद् में संस्कृति के व्यापक स्वरूप की व्याख्या स्थायी की शाखाएँ हैं। जलवायु की भिन्नता के कारण भाषा, रहन-सहन त महत्त्व की है। विश्व की सभ्यताओं का उन्नयन एवं पतन संस्कृति । एवं रूप-रंग में कुछ अन्तर अवश्य है। यह बाहरी अन्तर है और 2006 की तुला पर रखकर ही समझा जा सकता है। “कस्यापि देशस्य । इसके होते हुए भी भाव, विचार, विश्वास, अनुभूति, आदर्श एवं समाजस्य वा विभिन्न जीव व्यापारेषु सामाजिक सम्बन्धेषु वा आकांक्षाओं में समस्त मानव जाति में विलक्षण समानता है। यही मानवीयत्त्व दृष्टया प्रेरणाप्रदानां तत्तदादर्शानी समष्टिरेव संस्कृतिः। भीतरी समानता निर्णायक होती है। विश्व के कतिपय प्रमुख देशों वस्तुतस्तस्यामेव सर्वस्यापि सामाजिक जीवनस्योतकर्षः पर्यवसति। की सांस्कृतिक विशेषताएँ धीरे-धीरे सभी देशों में आत्मसात् कर ली RORS GONDA 03560XJHAUTARVO 5650860

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