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अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
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अहिंसा और अपरिग्रह को लेकर जैनागमों और जैनदर्शन के अपरिग्रही होना = वीतरागी होना। वीतरागी होना == अप्रमत्त/जागृत अनेकानेक ग्रन्थों में जैन तत्व मनीषियों/प्राज्ञों/चिन्तकों/मननको ने होना। अप्रमत्त -जागृत होना = अहिंसक होना। कहने का अर्थ यही विशद् चर्चा/ऊहापोह किया है। विभिन्न दृष्टिकोणों से इनको । है कि “जो ममत्व बुद्धि का परित्याग कर सकता है, वही ममत्व = देखा/परखा और निष्कर्ष के रूप में यह दृष्टिगत किया है कि- परिग्रह का त्याग कर सकता है-'जे ममाहयमहं जहाइ, से जहाइ 'अहिंसा अपरिग्रह की पीठ पर खड़ी है और अपरिग्रह अहिंसा के ममाहय।' (आचारांग-१-२-६)। बिना असंभव है। अर्थात् ये दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं और
_ मूर्छा ही परिग्रह-वस्तुतः वस्तु या व्यक्ति परिग्रह नहीं है। दोनों पहलू की जीवन्तता अत्यावश्यक है।
परिग्रह है रागभाव। तत्त्वार्थ सूत्र में आचार्य उमास्वाति ने कहा है सामान्यतया हम देखते हैं कि हमारे चारों ओर अहिंसा पर कि 'मूर्छा परिग्रहः।' जिसे आगम के इस सूत्र से समर्थित किया जा बहुत-सी चर्चाएँ/संगोष्ठियाँ/सेमिनार आयोजित होते रहते हैं। जिनमें । सकता है-'मुच्छा परिग्गहो वुत्तो।' (दश. ६/२१)। प्रथमरति के ग्रन्थ अहिंसा का सूक्ष्मतम चिंतन और स्वरूप उजागर किया जाता है। कर्ता ने भी यही बात कही है-'अध्यात्मविदो मूर्छा परिग्रह किन्तु अपरिग्रह को गौण या दरकिनार कर दिया जाता है। जबकि वर्णयन्ति। वस्तु सत्य यह है-'अहिंसा अपरिग्रह के बिना सफल हो नहीं
मूर्छा का अर्थ है विचारमूढ़ता। मूर्छा शब्द दिखने में बहुत सकती। हिंसा का जन्म ही परिग्रह की भूमि पर ही होता है।
छोटा शब्द है, किन्तु यह अपने भीतर समस्त संसार के द्वंद्व को जैनागमों में प्रसिद्ध आगम सूत्रकृतांग सूत्र की चूर्णि में स्पष्ट
समेटे हुए हैं। मद्यपान के बाद व्यक्ति की बेभान चेतना के समान ही उद्घोष है-'आरम्भपूर्वको परिग्रहः' (१-२-२) तथा मरणसमाधि
विमूढ़ व्यक्ति की अवस्था होती है। विमूढ़ावस्था में व्यक्ति नामक ग्रंथ में कहा है-'अत्थोमूलं अणत्थाणं'-(६०३) 'अर्थ
कर्तव्याकर्त्तव्य के विचार से रहित हो जाता और विवेकविकल बन (परिग्रह) अनर्थ का मूल कारण है।'
जाता है। विवेकविकल व्यक्ति संसार के महाजाल में बँधता हुआ अहिंसक बनने की पहली शर्त है अपरिग्रही बनना। विश्व के बंधन से अनजान रहता है। क्योंकि वह परिग्रह को ही दुःख मुक्ति समस्त धर्मों में जैन धर्म ही एक ऐसा धर्म है। जिसने त्यागी जीवन का साधन मान लेता है। 'पर' को 'स्व' मानना ही तो मूर्छा है। पर पर अधिकाधिक बल देते हुए ‘त्यागीधर्म' का मार्गदर्शन किया है। में रमणना कर्मजाल का पाश है। प्रश्न व्याकरण सूत्र में यही कहा निवृत्ति प्रधान धर्म ही जैनधर्म है। त्याग की भूमि पर ही जैनधर्म | गया है-'नथि एरिसो पासो पडिबन्धो अस्थि सव्व जीवाणं सव्व खड़ा है। निवृत्ति का अर्थ है 'लौटना'-'किससे लौटना?'-'अशुभ । लोए' (१-५) अर्थात् संसार में परिग्रह के समान प्राणियों के लिए और परभाव से लौटना!' वस्तुतः त्याग के बिना अशुभ से लौटा दूसरा कोई जाल एवं बन्धन नहीं है।' नहीं जा सकता है। जैन साधक की क्रियाओं में प्रतिक्रमण' एक
परिग्रह दुःखदायी-परिग्रह दु:ख मुक्ति का उपाय नहीं है। अपितु महत्वपूर्ण क्रिया है। जिसमें आत्मा अशुभ से निवृत्त होकर शुभ में
यह तो दुःख के अथाह सागर में धकेलने वाला है। परन्तु स्थित होती है। जैसे अशुभ/अशुचियुक्त पदार्थ व्यक्ति अपने पास न
ममत्व/मूर्छा टूटे बिना जागरण भाव नहीं होता। मूर्छा-प्रमत्तावस्था तो रखना चाहता है, न ऐसे स्थान पर रूकना चाहता है जहाँ
है। प्रमत्त व्यक्ति विषयासक्त होता है-'जे प्रमत्ते गुणहिए'-आचा. अशुचि-अशुभता हो। ठीक वैसे ही जैन धर्म का कथन है कि अशुभ ।
१-१-४।" और विषयों में लीन व्यक्ति जिनसे अर्थात् भोगों या विचारों के त्याग के बिना और निवृत्ति मार्ग ग्रहण किये बिना
वस्तुओं में सुख की अभिलाषा रखते हैं, वे वस्तुतः सुख के हेतु जीवन का निर्माण नहीं होता है। पदार्थ त्याग के साथ-साथ अशुभ
नहीं है-'जेण सिया तेण णो सिया'-आचा. १-२.४।" प्रमादी व्यक्ति विचारों का त्याग भी अत्यावश्यक है। क्योंकि विचारों में ही सबसे
संसार में कभी भी सुख का मार्ग नहीं पकड़ पाता है। वह तो सदा पहले शुभाशुभ/हिंसाहिंसा का जन्म होता है। विचारों की दूषितता ही
दुःख का मार्ग ही ग्रहण करता है और फिर सदा पग-पग पर हिंसा तथा परिग्रह को जन्म देती है।
भयभीत बना रहता है-'सव्वओ पमत्तस्स भयं-१-३-४।' प्रमत्त जीव अपरिग्रह और वीतराग-जैनधर्म और दर्शन के प्रणेता तीर्थंकर । जागरण के अभाव में परिग्रह को नहीं छोड़ता है। जैसे-जैसे वह भगवान को माना जाता है। जिनके लिए एक विशेष शब्द का प्रयोग । संग्रहवत्ति में आसक्त होता है वैसे-वैसे वह संसार में अपने प्रति वैर किया जाता है। वह शब्द है-'वीतराग'। वीतराग शब्द दो शब्दों के । को बढ़ाता जाता है-'परिग्गह निविट्ठाणं, वेरं तेसिं पवट्ठई-सूत्र. योग से बना है = वीत + राग। अर्थात् बीत गया/चला गया है राग । १-९-३।' और स्वयंमेव दुःखी होता है। आचारांग सूत्र में श्रमण भाव जिसका, वह है वीतराग। राग का अर्थ है = ममता/आसक्ति । भगवान महावीर फरमाते है-'आसं च छंदं च विगिंच धीरे। तुम चेव अपनत्व/जहाँ-जहाँ जिस-जिस व्यक्ति या वस्तु में ममता है, आसक्ति । सल्लनमाहटु।'-(१-२-४) अर्थात् हे धीर पुरुष! आशा, तृष्णा और है, अपनापन है, वहाँ-वहाँ रागभाव है। और जहाँ-जहाँ रागभाव है, स्वच्छंदता का त्याग कर। तू स्वयं ही इन काँटों को मन में रखकर वहाँ-वहाँ हिंसा है। परिग्रह है। ममत्वहीन होना = अपरिग्रही होना। दुःखी हो रहा है। "नदी के वेग की तरह परिग्रह भी क्या-क्या
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