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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । [ आचार्यश्री जीतमलजी महाराज : व्यक्तित्व दर्शन |
साधु क्यों नहीं बन सकता? आत्मा तो न बालक है ? न वृद्ध है, न
युवा है। उसमें अनन्त शक्ति है। यदि उस शक्ति का विकास करे तो समय-समय पर विश्व के क्षितिज पर ऐसे विशिष्ट व्यक्तियों
। वह नर से नारायण बन सकता है, मानव से महामानव बन सकता रदय होता है जो अपने अलौकिक व्यक्तित्व और कृतित्व से है, इन्सान से भगवान बन सकता है। फिर माँ, हम साधु बनकर जन-जन का पथ-प्रदर्शन करते हैं। भूले-भटके जीवन राहियों को अपनी आत्मा का विकास क्यों नहीं कर सकते? अतः माँ. तम मझे मार्गदर्शन देते हैं। उन्हीं विशिष्ट व्यक्तियों की श्रृंखला में अनुमति प्रदान करो तो मैं साधु बनना चाहता हूँ। आचार्यप्रवर श्री जीतमलजी महाराज का भी नाम आता है। वे एक माता ने अपने लाड़ले का सिर चूमते हुए कहा-बेटा, अभी तू मनीषी और मनस्वी सन्त थे। उन्होंने जैन साहित्य और कला के
बहुत ही छोटा है। तो साधु बनकर कैसे चलेगा? साधु बनना कोई क्षेत्र में एक अद्वितीय कीर्तिमान स्थापित किया। जो आज भी । हँसी-मजाक का खेल नहीं है। मोम के दाँतों से लोहे के चने चबाने चिन्तकों के लिए प्रेरणादायी है।
जैसा कठिन कार्य है। तलवार की धार पर चलना सरल है, किन्तु आपश्री का जन्म हाडोती राज्य के अन्तर्गत रामपुरा में हुआ
साधना के कठोर कंटकाकीर्ण पथ पर चलना बड़ा ही कठिन है। था। आपश्री के पिता का नाम सुजानमलजी और माता का नाम
साधु बनने के पश्चात् केशों का लुंचन करना पड़ता है। भूख और सुभद्रादेवी था। आपका जन्म कार्तिक शुक्ला पंचमी वि. सं. १८२६
प्यास सहन करनी पड़ती है। अतः जितना कहना सरल है उतना ही में हुआ था। माता-पिता के संस्कारी जीवन का असर आपके जीवन कठिन है साधना का मार्ग। पर पड़ा था।
_माँ, तुम तो वीरांगना हो। तुम मुझे समय-समय पर वीरता विक्रम संवत् १८३३ में आचार्यप्रवर सुजानमलजी महाराज का
की प्रेरणा देती रही। तुमने मुझे इतिहास की वे घटनाएँ सुनायी रामपुरा में पदार्पण हुआ। उनके पावन प्रवचनों को सुनकर
हैं कि वीर बालक क्या नहीं कर सकता? वह आकाश के तारे सुभद्रादेवी को और कुमार जीतमल के अन्तर्मानस में वैराग्य
| तोड़ सकता है। मैं तुम्हारा पुत्र हूँ, दीक्षा लेकर अपने जीवन को ही भावना उबुद्ध हुई। पुत्र ने अपने हृदय की बात माँ को कही-माँ! नहीं किन्तु जैन धर्म को भी चमकाऊँगा। तुम्हारे दूध की कीर्ति मेरे पिताजी का नाम और आचार्यश्री का नाम एक ही है।
बढ़ाऊँगा। आचार्यश्री का उपदेश तो ऐसा है मानो अमृत रस हो। उस अमृत अच्छा बेटा! मुझे विश्वास है कि तेरी बुद्धि बहुत ही तीक्ष्ण है। रस का पान चाहे कितना भी किया जाय, तृप्ति नहीं होती। एक तेरे में प्रतिभा है। तू अवश्य ही जैन धर्म की प्रभावना करेगा। यदि अद्भुत आनन्द की उपलब्धि होती है। आचार्यप्रवर के उपदेश को तू दीक्षा लेगा तो मैं भी तेरे साथ ही दीक्षा लूँगी। मैं फिर संसार में सुनने के पश्चात् मेरे मन में ये विचार प्रतिपल प्रतिक्षण समुत्पन्न नहीं रहूँगी। किन्तु बेटा, पहले तेरे पिता की अनुमति लेना हो रहे हैं कि मानव का जीवन कितना अमूल्य है जिसको आवश्यक है। बिना उनकी अनुमति के हम दोनों साधु नहीं बन प्राप्त करने के लिए देवता भी छटपटाते हैं। क्या हम उसे यों ही । सकते। बरबाद कर दें? यह तो निश्चित है कि एक दिन जो व्यक्ति जन्मा
बालक जीतमल पिता के पास पहुंचा और उसने अपने हृदय है उसे अवश्य ही मरना है, जो फूल खिलता है वह अवश्य ही
की बात पिता के समक्ष प्रस्तुत की। पिता ने मुस्कराते हुए कहामुरझाता है। जो सूर्य उदय होता है वह अवश्य ही अस्त होता है।
'वत्स, तुझे पता नहीं है कि साधु की चर्या कितनी कठिन होती है। किन्तु हम कब मरेंगे यह निश्चित नहीं है। अतः क्षण मात्र का भी
तेरा शरीर मक्खन की तरह मुलायम है। तू उन कष्टों को कदापि प्रमाद न कर साधना करनी चाहिए। बोल माँ, क्या मेरा कथन
सहन नहीं कर सकता। तथापि मैं श्रावक होने के नाते साधु बनने सत्य है न?
के लिए इन्कार नहीं करता। किन्तु बारह महीने तक मैं तुम्हारे - हाँ बेटा, आचार्यश्री के उपदेश में पता नहीं क्या जादू है। तेरी वैराग्य की परीक्षा लूँगा और यदि उन कसौटियों पर तुम खरे उतर तरह मेरे मन में भी ये विचार पैदा होते हैं। मैं क्यों संसार में फँस गये तो तुम्हें सहर्ष अनुमति दे दूंगा।' गयी? अब तो घर-गृहस्थी का सारा भार मेरे पर है। मैं उसे कैसे
श्रेष्ठी सुजानमल जी ने विविध दृष्टियों से पुत्र की परीक्षा ली। छोड़ सकती हूँ। तू तो बच्चा है। अभी तेरी उम्र ही क्या है? अभी
जब उन्हें यह विश्वास हो गया कि मेरा पुत्र वय की दृष्टि से भले तो तू खूब खेल-कूद और मौज मजा कर।
ही छोटा है, किन्तु इसमें तीक्ष्ण प्रतिभा है। यह श्रमण बनकर माँ, तुम्हें अब अनुभव हुआ है कि संसार असार है। यदि पहले जैनधर्म की ज्योति को जागृत करेगा। इसकी हस्तरेखाएँ यह बता न फँसती तो अच्छा था। फिर माँ तुम मुझे फँसाना चाहती हो? रही हैं कि यह कभी भी गृहस्थाश्रम में नहीं रह सकता। यह एक लगता है, तुम्हारा मोह का परदा अभी तक टूटा नहीं। आचार्यश्री ने ज्योतिर्धर आचार्य बनेगा। मैं स्वयं दीक्षित नहीं हो सकता तो इसे आज ही बताया था कि अतिमुक्तकुमार छह वर्ष की उम्र में साधु कयों रोकूँ। उन्होंने पुत्र व पत्नी को सहर्ष दीक्षा की अनुमति प्रदान बने थे। वज्रस्वामी भी बहुत लघुवय में साधु बन गये थे तो फिर मैं । की। गर्भ के सवा नौ मास मिलने से बालक की उम्र नौ वर्ष की हो
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