________________
| इतिहास की अमर बेल
४७१ ।
एक दिन सेठ रघुनाथ जी ने वैरागी धन्नालाल जी को अपने इंदाड़ा, जोधपुर पधारे जहाँ स्थविर श्री रावतमल जी (ठाणा-२) घर पर भोजन के लिए बुलाया। भोजनोपरान्त सेठ जी ने बालक और पं. नारायणदास जी (ठाणा-२) विराजमान थे। व्याख्यान स्थल धन्नालाल से पूछा-आपके थाल में तीन प्रकार की कटोरियाँ रखी | पर पहुँचने पर बाल मुनि श्री देवेन्द्र मुनि जी के स्वागत में अपार हैं। एक सोने की, एक चाँदी की, एक लकड़ी की! तो आप कौनसी जन समुदाय सहसा उठ खड़ा हुआ और 'एवन्ता मुनि' कहकर कटोरी लेना पसन्द करेंगे?
आपश्री का जय-जयकार किया। जोधपुर के दीवान ने आपश्री के बालक धन्नालाल ने क्षणभर सोचा फिर निर्भीकता पूर्वक बोले
दर्शन किये तो वे आश्चर्य और जिज्ञासा वश पूछ बैठे कि आपने लकड़ी की!
इतनी कम आयु में साधुत्व कैसे ग्रहण किया ? आपश्री का उत्तर
था संसार असार है, मैंने वैराग्य भाव से उत्प्रेरित होकर ही दीक्षा सेठ जी चौंक उठे। हैं !! लकड़ी की क्यों? सोना चाँदी ज्यादा
ग्रहण की है। आप भी इस अनुभव को करना चाहें तो दीक्षा ग्रहण मूल्यवान होता है, तुमको मालूम नहीं ?
कर सकते हैं। दीवान इस उत्तर से संतुष्ट और प्रभावित हुए। धन्नालाल सेठ जी, मेरे विचार से सोना, चाँदी की महत्ता कुछ आपश्री के लिए नवीन का यह स्वरूप नया होते हुए भी नया नहीं भी नहीं है। सोचिए, अगर आपको नदी पार करनी है, और एक था। इसे ग्रहण करने की तीव्र अभिलाषा और प्रतीक्षा लम्बे समय सोने की, एक चाँदी की और एक लकड़ी की नाव खड़ी हो तो से आपश्री के चित्त में थी। इस जीवन परिवेश को आपश्री ने आप कौनसी नाव में बैठना पसन्द करेंगे?
अपनाया तो अब था, किन्तु इससे गहन परिचय और लगाव बहुत सेठ रघुनाथ जी व्युत्पन्नमति बालक धन्नालाल की प्रखर
पूर्व से था, यही स्वरूप आपश्री के लिए श्रेयस्कर और प्रियकर था बुद्धिमत्ता और वैराग्य वृत्ति देखकर अत्यधिक प्रभावित हुए। उन्होंने
और बना रहा। पूज्य गुरुदेव ताराचन्द जी म. से निवेदन किया-"यह बालक जिन ____ गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. के प्रेरक और पावन शासन दिपायेगा! महान प्रभावशाली होगा।"
सान्निध्य में आपश्री ज्ञानार्जन करते रहे। “अप्रमत्त भाव से ज्ञान तब खण्डप श्री संघ का अनुरोध प्रबल हो उठा-कि दीक्षा-स्थल
और ध्यान की साधना करो"-गुरुदेवश्री के इस आदेश निर्देश को खण्डप ही रखा जाय। दीक्षा सम्बन्धी निर्णय से पूर्व ही चातुर्मास
साधना का मूलमंत्र मानकर आपश्री किंचित् मात्र भी प्रमाद किये सम्पन्न हो गया और मुनि वर्यों का खण्डप से उदयपुर की और बिना, सतत् रूप में आगम, दर्शन और धर्म सिद्धान्तों का गहन 2902
900 प्रस्थान हो गया, किन्तु खण्डप श्री संघ का अनुरोध पुनः पुनः होता
अध्ययन करते रहे, ज्ञान को आत्मसात् करते रहे। स्वाध्याय की ही रहा। अन्ततः खण्डप में ही, नौ वर्ष की आयु में, बालक
इसी संजीवनी से आपश्री का काया-कल्प हो गया। मन परिष्कृत, धन्नालाल को पूज्य गुरुदेव श्री ताराचन्द जी म. द्वारा, फाल्गुन
विचार विमल और आपश्री स्वयं साक्षात् ज्ञान-मूर्ति हो गये। आपश्री शुक्ला तृतीया तदनुसार १ मार्च १९४१ को, भव्य समारोह में दीक्षा
का दीप्तमान एवं दिव्य व्यक्तित्व गुरुदेवश्री की अनन्त कृपा और प्रदान कर दी गयी। उनका दीक्षा नाम-देवेन्द्र मुनि रखा गया और
अमित आशीर्वादों का ही प्रतिफल है। सत्य ही है कि माता-पिता इन्हें गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी म. का प्रथम शिष्य घोषित किया व्यक्ति को जन्म देते हैं और सद्गुरुदेव ही व्यक्तित्व के जनक गया। इसके पश्चात् ही इसी वर्ष आषाढ़ शुक्ला तृतीया को मातुश्री होते हैं। श्रीमती तीज बाई जी ने भी महासती श्री सोहन कुँवर जी म. के
आपश्री के गहन अध्ययन ने आपश्री के चिन्तन को प्रेरित पावन सान्निध्य में संयम ग्रहण कर लिया और उनका नाम प्रभावती
किया और चिन्तन ने आपश्री को गम्भीर लेखन की दिशा में रखा गया।
अग्रसर किया। सृजनधर्मी होकर आपश्री ने जैन दर्शन, धर्म, श्री देवेन्द्र मुनि जी की लघुवय में दीक्षा के प्रश्न पर दीक्षा पूर्व । आचार-विचार, कर्म सिद्धान्त और नीतिशास्त्र आदि को अपनी जो कुतर्क विरोध-स्वरूप प्रस्तुत किये गये वे तो सभी शास्त्रीय विषय-भूमि के रूप में अपनाया। शोध की प्रवृत्ति ने आपश्री को विधान द्वारा निरस्त कर दिये गये, किन्तु दीक्षा पश्चात् उनकी तलस्पर्शी दृष्टि प्रदान की और कृतियों को नवीनता और मौलिकता लघुवय चर्चा और आकर्षण की कारण बनी रही। नवदीक्षित श्री से शृंगारित कर दिया। गूढ़ गम्भीर विषय भी आपश्री का विवेचनदेवेन्द्र मुनि जी को पदयात्रा का अभ्यास नहीं था। अनेक अवसरों विश्लेषण पाकर 'हस्तामलकवत्' अति स्पष्ट, सुगम और बोध-गम्य पर गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी महाराज सा. और दादागुरु श्री हो गये। वे सर्वग्राह्य हो गये। अपार साहित्य की सृष्टि आपश्री ने ताराचन्द जी महाराज साहब ने इन बाल-मुनि को अपने कंधों पर की है। आपश्री को जैन-वाङ्मय के उत्कृष्टतम रचनाकार होने का बिठाकर भी विहार किया। मोकलसर में आपश्री की बड़ी दीक्षा गौरव तो प्राप्त है ही, आपश्री सर्वाधिक कृतियों के रचयिता भी सम्पन्न हुई। उस मंगल अवसर पर जैन दिवाकर चौथमल जी म. माने जाते हैं। साहित्य को धर्म प्रचार का सबल और समर्थ साधन भी अपने शिष्यों के साथ मोकलसर पधारे। मोकलसर से विहार । स्वीकारते हुए आपश्री ने सर्वांगपूर्ण रूप में जैन दर्शन को अपनाया कर श्री देवेन्द्र मुनि जी अपने गुरुदेवश्री के साथ सिवाना, समदड़ी, और उसे जन-जन के लिए सुलभ भी करा दिया। विचार-वैविध्य,
PainEducaturinternational
For Private & Personal Use Only
nowtainellarary.org