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इतिहास की अमर बेल
संकल्प दृढतर होता गया। पितामह जब इस संकल्प से अवगत हुए तो विचलित हो गये। वे भी धर्मानुरागी श्रद्धालु पुरुष थे, किन्तु मोह वश वे सुन्दरी को संयमार्थ अनुमति नहीं दे सके। उनके स्वर्गवास के अनन्तर स्व. श्री जीवनसिंह जी के अनुज श्री रतनलाल जी बरडिया परिवार के मुखिया रहे। उन्होंने भी सहमति नहीं दी, किन्तु धर्मप्राण मातुश्री की ओर से उन्हें सदा ही प्रेरणा प्राप्त होती रही। उन्होंने अपनी पुत्री को दीक्षार्थ अनुमति देने का निश्चय कर लिया। और आगामी प्रातः वे आज्ञापत्र लिखने ही वाली थीं कि उसी रात्रि में भारी आसुरी विघ्न आ उपस्थित हुआ। स्वप्न में एक भयावह दैत्य प्रकट होकर श्रीमती तीजकुमारी जी को आज्ञा पत्र न लिखने का निर्देश देने लगा। यह भय भी दिखाया कि यदि मेरी आज्ञा न मानेगी तो मैं तुझे ऐसा कायिक कष्ट दूँगा कि वर्षों तक पीड़ा से त्रस्त रहेगी। किन्तु दृढ़ निश्चयी मातुश्री अपने संकल्प से विचलित होने वाली न थीं। उन्होंने दैत्य को निर्भीकता पूर्वक उत्तर दिया कि मैं आज्ञा पत्र अवश्य लिखूँगी। बेटी सुन्दरी को संयम ग्रहण करने से कोई शक्ति रोक नहीं सकती। आसुरी शक्ति का प्रतीक वह दैत्य यह कहकर अदृश्य हो गया कि प्रातः ही मैं तेरे मन में प्रविष्ट होकर आज्ञा पत्र लिखने वाले दाएं हाथ को ही जला दूँगा।
स्वप्न सत्य रूप में घटित होकर ही रहा। प्रातः श्रीमती तीजकुमारी जी रसोई में गयी और सिगड़ी प्रज्वलित करने लगी। तभी उनके व्यवहार में अद्भुत परिवर्तन आया। अपने सीधे हाथ पर मिट्टी का तेल डालकर उन्होंने प्रज्वलित कर दिया और चूड़ियों के साथ अपना ही हाथ जलता देख देख कर वे अट्टहास करने लगीं। यह दुष्कृत्य वस्तुतः उनमें प्रविष्ट असुर का ही था और उसके प्रस्थान पर ही उन्हें ज्ञात हुआ कि उनका हाथ दग्ध हो गया। है और दारुण पीड़ा हो रही है। स्थिर मन से सारी परिस्थिति विचार कर उन्होंने उच्चारण करके आज्ञा पत्र लिखवाया और अंगूठे की छाप अंकित करते हुए सुन्दरी जी से कहा कि मैं न भी रहूँ, तब भी तू संयम का मार्ग अवश्य ग्रहण करना ।
धर्म-मार्ग में ऐसी थी मातुश्री जी की दृढ़ता और ऐसी ही संकल्प की दृढ़ता का परिचय सुपुत्री सुन्दरी जी ने भी दिया। सभी व्यवधानों को निस्तेज करते हुए उन्होंने १२ फरवरी, १९३८ को दीक्षा ग्रहण की। सुन्दरी जी का दीक्षा नाम महासती श्री पुष्पवती जी रखा गया। आपश्री ने सद्गुरुणी महासती श्री सोहन कुँवरजी म. के. पावन सान्निध्य में स्वाध्याय साधना की और उच्चतर उपलब्धियों की पात्र बनी । न्यायतीर्थ, काव्यतीर्थ साहित्य-रत्न' महासती श्री पुष्पवती जी म. जैन सिद्धान्ताचार्या हैं। जैन दर्शन की अगाध ज्ञाता और निपुण व्याख्याता होने के साथ-साथ आपश्री अनेक जैनेतर धर्मों और दर्शनों की निष्णात विदुषी है। प्रवचन प्रवीणा महासती जी की वाणी में अद्भुत प्रभाव है। मंत्र-मुग्ध से श्रोता समस्त सुधि विस्मृत कर आपश्री द्वारा विवेचित विषय में खो से जाते हैं। महासती जी जब विश्लेषण करती हैं तो गूढ़तम विषय भी सर्व साधारण के लिए सुगम और ग्राह्य हो जाता है, सर्वथा
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निर्भ्रान्त एवं स्पष्ट हो जाता है। आपश्री के प्रवचन ज्ञान की अभिवृद्धि ही नहीं करते, अनुसरण की प्रेरणा भी देते हैं। साक्षात् सरस्वती-पुत्री-सी महासती पुष्पवती जी म. श्रमण संघ की अनुपम विभूति हैं।
महासती श्री प्रभावती जी
अपने पुत्र (आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनिजी शास्त्री) की दीक्षा के उपरान्त स्वयं श्रद्धेया तीजकुमारी जी ने भी दीक्षा ग्रहण की। आपश्री का दीक्षा नाम महासती श्री प्रभावती म. रहा। परम वैदुष्यसम्पन्न, साध्वी रत्ना महासती श्री प्रभावती जी म. की अविचल धर्मनिष्ठा और अपार श्रद्धा, सत्संग और स्वाध्याय की प्रवृत्ति गृहस्थाश्रम की अवस्था में भी न केवल बढ़ी चढ़ी थी, अपितु वह सतत् रूप से उत्तरोत्तर विकसित और सशक्त भी होती रही। आपश्री अत्यन्त प्रबुद्ध एवं प्रखर प्रतिभा की स्वामिनी थीं। अनेक जैन शास्त्र एवं पांच सौ से भी अधिक श्लोक तो आपको कंठस्थ ही थे। साहित्य रचना द्वारा भी आपश्री ने जैन जगत पर बड़ा उपकार किया। आपश्री की रचनाएँ जैन साहित्य की अमूल्य निधियाँ हैं। महासती श्री प्रभावती जी म. अध्यात्म साधिका थीं, धर्म-दर्शनतत्त्ववेत्ता थीं, आगम-विदुषी थीं, धर्म प्रसारक एवं समाज सुधारक थी और सबसे बढ़कर तो वे महामानवी थीं। आपश्री की मिलनसारिता, मृदुल व्यवहार और मानव मैत्री की विशेषताओं में ही आपश्री की अपार अपार लोकप्रियता का रहस्य निहित था। सन् १९८१ में अत्युच्च आध्यात्मिक उत्कर्ष के साथ महासती जी का स्वर्गारोहण हुआ।
आचार्य सम्राट बाल्यजीवन की आभापूर्ण भोर
महापुरुष स्वाश्रित होते है, स्वनिर्मित व्यक्तित्व के धनी होते हैं। आचार्य श्री इस स्वर्णिम सिद्धान्त के जीवन्त दृष्टान्त हैं। आपश्री का पितृ-सुख तो अति शैशवकाल तक ही सीमित रह गया था। अभिभावकगण की धर्म-विषयक नैष्ठिकता रक्त-संस्कार रूप में आपश्री में उदित हुई थी। मातुश्रीजी के धर्मानुराग का परोक्ष और प्रत्यक्ष प्रभाव उसे परिपुष्ट करता रहा। वे ही संस्कार ज्ञाताज्ञात रूप में अभिवर्धित होते-होते आज आपश्री की चरम उपलब्धियों के स्वरूप में रूपायित हो गये हैं। इस कथन में रंचमात्र भी अतिशयोक्ति नहीं है आज आपक्षी धर्माराधकों के शिरोमणि हैं। मातुश्री के संस्कारशील प्रबुद्ध संरक्षण श्रद्धेय श्रमण श्रमणियों का सान्निध्य, स्वाध्याय और साधनाओं के बल पर तथा गुरुदेव के आशीर्वादों के फलस्वरूप ही यह उत्कर्ष सम्भव हो पाया है।
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महापुरुषों की भावी भव्यता के पूर्व-संकेत शैशवावस्था से ही मिलने लग जाते हैं। यही स्थिति आपश्री के जन्मजात महान सद्गुणों के साथ भी रही । अत्यन्त अल्प आयु में ही उनकी प्रवृत्तियाँ अतिविशिष्ट थीं। सम्वत् १९९१ वि. की चर्चा है। कपासन ग्राम में पूज्य आचार्य प्रवर जवाहरलालजी म. विराजित थे। महाराज साहब के रिक्त पाट के समीप ही आपश्री के पितामह श्री
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