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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ
जैन-दर्शन में काल की अवधारणा
-डॉ. वीरेन्द्र सिंह दर्शन और विज्ञान के क्षेत्र में 'काल-प्रत्यय' को लेकर जो कि जैन-दर्शन (सारा भारतीय दर्शन) ने काल के भिन्न रूपों तथा चिन्तन एवं मनन हुआ है, वह काल को निरपेक्ष, अनन्त, सापेक्ष, कोणों को प्रस्तुत किया है कि दिक्-काल का एक व्यापक परिदृश्य सीमित, रेखीय, चक्रीय तथा मानव अनुभव के क्षेत्र में हमारे सामने उजागर होता है। मनोवैज्ञानिक काल के अस्तित्व को किसी न किसी रूप में मानता
जैन-दर्शन में काल को मूलतः “द्रव्य" माना गया है, लेकिन है। इसका अर्थ यह हुआ कि दार्शनिक चिन्तन एवं मानवीय अनुभव
कुछ आचार्य काल को द्रव्य नहीं मानते हैं। इनका मानना है कि काल में काल एक पूर्व-अवधारणा है जिसके द्वारा हम मानव, विश्व और
स्वतंत्र द्रव्य नहीं है, वरन् वह जीवादि द्रव्यों का प्रवाह (पर्याय) है; जगत को समझ सकते हैं तथा दूसरी ओर, विज्ञान के क्षेत्र में काल
यह मत आचार्य उमास्वाति का है और यही मत आगमों का भी है। एक राशि या द्रव्य है जिसके द्वारा हम घटनाओं, क्रियाओं का
दूसरा पक्ष काल को स्वतंत्र द्रव्य मानता है। उनका मानना है कि मापन और उनसे गणना करते हैं। जब हम अंतरालों, दूरियों का
जिस प्रकार जीव-पुद्गल (भौतिक पदार्थ) आदि स्वतंत्र द्रव्य हैं उसी मापन करते हैं, तो वह एक तरह से 'दिक्' या स्पेस का ही मापन
प्रकार काल भी स्वतंत्र द्रव्य है। काल जीवादि पर्यायों का प्रवाह नहीं है। विज्ञान-दर्शन में काल, दिक् सापेक्ष है अर्थात् दिक्-काल का
है, वरन् उसे इससे भिन्न तत्त्व समझना चाहिए। सम्बन्ध निरपेक्ष न होकर सापेक्ष है। दिक्-काल का अस्तित्व दृष्टा सापेक्ष है और साथ ही गति सापेक्ष।
यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि जैन-दर्शन की यह
प्रमुख मान्यता है कि काल, भौतिक पदार्थों और साथ ही इस पृष्ठभूमि के प्रकाश में जैन-दर्शन में काल के स्वरूप तथा क्षेत्र को लेकर जो चिन्तन हुआ है, उसे हम दर्शन और विज्ञान की
आध्यात्मिक पदार्थों दोनों को रूपांतरित करता है, वह नित्य है; मान्यताओं के प्रकाश में सही प्रकार से लोकेट या निर्धारित कर
यहाँ तक कि काल के बगैर विश्व का विकास भी संभव नहीं है। सकते हैं। दूसरा कारण यह है कि जैन-दर्शन एक सापेक्ष-दर्शन है तुलनात्मक दृष्टि से यही बात हमें रामायण और महाभारत में जो आधुनिक विज्ञान की मान्यताओं से न्यूनाधिक समानता रखता भी प्राप्त होती है जहाँ काल के द्वारा ही सब कुछ घटित होता है है। दूसरी ओर यह भी मानना होगा कि अक्सर भारतीय दार्शनिक और इस प्रकार काल ही विश्व का कारण है। इस तुलना से मैं यह पद्धतियों में (यथा वेदांत, बौद्ध, जैन तथा षट्दर्शन) अधिक कहना चाहता हूँ कि भारतीय-दर्शन की विचार-पद्धतियों में जो वर्गीकरण एवं मिथकीय आवरण के कारण सत्य और यथार्थ को समानता मिलती है (असमानता भी), वह यह स्पष्ट करती है कि निर्गमित करना होता है और साथ ही, प्रतीकों, बिम्बों और भारतीय दार्शनिक परम्परा का स्रोत बैदिक साहित्य है और यह आद्यरूपों के अन्तर्निहित अर्थ को उद्घाटित करना होता है। दूसरी । परम्परा द्वन्द्वात्मक है जो भिन्न विचार-दर्शनों के द्वन्द्व और विकास बात यह है कि इन्हें सूत्रात्मक थैली में कहा गया है, अतः गद्य के से सम्बन्धित है। जहाँ तक विज्ञान का प्रश्न है, वह काल को अभाव में उनका विस्तृत वर्णन संभव नहीं हो सका है। अतः आज | सापेक्ष, सीमित, आबद्धहीन एवं मापन का माध्यम मानता है। दिकहमारी यह आवश्यकता है कि हम उनके अर्थ को व्याख्याथित करें। काल का ससीम, छोरहीन रूप परोक्षतः काल के 'अनन्त' रूप का और उन्हें नए ज्ञान के प्रकाश में निर्धारित करें।
संकेत हैं, अतः काल का कोई ‘छोर' नहीं है, वह एक प्रकार से जैन-दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है "अनेकांत" जो ।
काल के 'अनन्त' रूप को ही संकेतित करता है। यही काल का वस्तुओं और चीजों को, सत्य और यथार्थ को देखने की भिन्न
तात्त्विक संदर्भ है। दृष्टियों को महत्त्व देता है और इस प्रकार भिन्न दृष्टियों के सापेक्ष इसी के साथ, जैन-दर्शन में काल को लेकर एक महत्त्वपूर्ण अस्तित्व को स्वीकार करता है। जहाँ तक काल प्रत्यय का सम्बन्ध । धारणा यह है कि काल ही पदार्थों के सारे परिणमनों, क्रियाओं है, उसे भी भिन्न रूपों तथा प्रकारों के तहत विवेचित किया गया है। और घटनाओं का सहकारी कारण है। परिणमन और क्रिया काल द्रव्य है या नहीं, काल चक्रीय है या रेखीय, काल का मनुष्य । सहभागी है। क्रिया में गति का (घटना में भी) समावेश होता है। क्षेत्रीय और ज्योतिष क्षेत्रीय रूप, काल का अवसर्पिणी और { गति का अर्थ है वस्तुओं और परमाणुओं का आकाश-प्रदेश (दिक्) उत्सर्पिणी रूप, काल और समय का रूप, कालाणु और काल का में स्थान का परिवर्तन जिससे दिक् भरा हुआ है। यह स्थान सम्बन्ध, काल, घटना और क्रिया का सम्बन्ध तथा काल के । परिवर्तन दूरी या नजदीकी से जाना जाता है, अतः दो बिंदुओं के व्यावहारिक प्रकार-ये सभी तत्त्व इस तथ्य की ओर संकेत करते हैं | बीच का अंतराल या अवकाश ही दिक् है।
प्रसिद्ध विद्वान डा. वीरेन्द्र सिंह का यह लेख विचित्र आयामों का करता हुआ चिन्तन की रोचक सामग्री प्रस्तुत करता है। यद्यपि कई स्थानों पर लेखक ने जैन दर्शन सम्मत धारणाओं के विपरीत स्वतंत्र चिन्तन प्रस्तुत किया है। जिससे सहमति आवश्यक नहीं है।
-संपादक
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