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इतिहास की अमर बेलामा
४४५ । जागृत हुई। आपकी ज्येष्ठ भगिनी तुलसाजी के मन में तो पहले से कहकर दीक्षा ग्रहण करती हूँ। पिता की अनुमति से पुनः दोनों ही दीक्षा की भावना थी और आचार्यश्री के उपदेश से उसकी भाई-बहन दीक्षा के लिये तैयार हुए और ज्यों ही दीक्षा के लिए वे भावना अधिक बलवती हो गयी। आप दोनों ने पूज्य पिता से दीक्षा नगर के द्वार पर पहुँचे त्यों ही काका पुत्र जो कोतवाल था, वह के लिए अनुमति चाही। किन्तु पूज्य पिताजी ने साधना की। वहाँ आ पहुँचा और बालक पूनम का हाथ पकड़कर अपने घर ले अतिदुष्करता बताकर पहले तो दीक्षा लेने की अनुमति नहीं दी, चला। सभी इन्कार होते रहे, किन्तु उसने किसी की भी न सुनी। किन्तु अन्त में पुत्र-पुत्री के अत्यधिक आग्रह को देखकर पिता ने । बहन तुलसा ने वहीं पर सत्याग्रह कर दिया कि अब मैं पुनः घर अनुमति दे दी।
नहीं जाऊँगी। अतः विवश होकर बहन तुलसा को उसी दिन दीक्षा पूनमचन्दजी के चाचा का लड़का जो जालोर में कोतवाल था,
देने की अनुमति प्रदान की। बालक पूनम ने भी अत्यधिक आग्रह जब उसने भाई-बहन की दीक्षा की बात सुनी तो समझाने का प्रयास
किया तो कोतवाल का कठोर दिल पिघल गया और उसने कहा-तू किया। जब आपको पूर्ण रूप से दीक्षा के लिए कटिबद्ध देखा तो
जालोर में तो दीक्षा नहीं ले सकता। यदि तुझे दीक्षा लेनी ही है तो उसने अन्य उपाय न देखकर एक कमरे में आपको बन्द कर दिया। ।
जालोर के अतिरिक्त कहीं पर भी दीक्षा ले सकेगा। तीन वर्ष तक मैं किन्तु भाग्यवशात् कमरे की खिड़की जो मकान से बाहर की ओर
तेरी हर दृष्टि से परीक्षा कर चुका। अतः तुझे मैं अब अनुमति देता थी, वह खुली रह गयी। उस खिड़की में से आप निकलकर जंगलों
हूँ। बालक पूनम ने अपने भ्राता कोतवाल की बात स्वीकार कर ली में लुकते-छिपते जोधपुर पहुँचे और पिताश्री का आज्ञा पत्र
और जालोर से २०-२५ मील दूर भँवरानी ग्राम में बड़े ही उत्साह आचार्यश्री के चरणों में रखकर दीक्षा के लिए प्रार्थना की। पिता की
के साथ आपकी दीक्षा सम्पन्न हुई। दीक्षा का दिन वि. सं. १९०६ आज्ञा लेने से आचार्यश्री को दीक्षा देने में किसी प्रकार की बाधा
माघ शुक्ला नवमी मंगलवार था। इस प्रकार ग्यारह वर्ष की उम्र में नहीं थी। शुभ मुहूर्त में दीक्षा की तैयारी प्रारम्भ हुई। बालक
वैराग्य भावना जागृत हुई थी किन्तु तीन वर्ष तक विविध बाधाओं पूनमचन्द शोभायात्रा के रूप में दीक्षा के लिए घोड़े पर बैठकर
को सहन करने के पश्चात् चौदह वर्ष की उम्र में आपकी दीक्षा मध्य बाजार के बीच में से जा रहा था। आचार्य ज्ञानमलजी
सम्पन्न हुई। आपने आचार्यश्री के सानिध्य में आगम और दर्शन का महाराज दीक्षास्थल पर पहुँच चुके थे। बालक पूनमचन्द के फूफाजी
गम्भीर अध्ययन किया। आपका रूप पूनम के चाँद की तरह जोधपुर में रहते थे। उन्हें पता लगा कि बालक पूनमचन्द जालोर से ।
सुहावना था। आपके रूप और प्रतिभा पर मुग्ध होकर एक यति ने भागकर यहाँ आया है और वह श्रमणदीक्षा ग्रहण करने जा रहा है।
आपसे निवेदन किया कि स्थानकवासी परम्परा के श्रमणों को अतः वे शीघ्र ही आरक्षक दल के अधिकारी के पास पहुँचे और
अत्यधिक कष्ट उठाना पड़ता है। न उन्हें समय पर खाने को मिलता आरक्षक दल के अधिकारी को लेकर बालक पूनमचन्द जो दीक्षा
है और न सुन्दर भवन ही मिलते हैं। आपका शरीर बहुत ही लेने के लिए जा रहा था उसके घोड़े को रोक दिया और अपने घर
सुकुमार है, वह इन सभी कष्टों को सहन करने में अक्षम है। ले आये। बुआ ने बालक को विविध दृष्टियों से रूपक देकर
एतदर्थ मेरा नम्र निवेदन है कि आप यति बन जाएँ तो मैं आपको
यतियों का श्रीपूज्य बना दूंगा। यतियों का श्रीपूज्य बनना बहुत ही समझाने का प्रयास किया कि तू बालक है, अतः दीक्षा ग्रहण न कर। हमारे घर में किसी भी बात की कमी नहीं है। जोधपुर नरेश
भाग्य की निशानी है। क्योंकि श्रीपूज्य के पास लाखों-करोड़ों की भी हमारे पर प्रसन्न हैं। फिर तू संयम क्यों ले रहा है? बालक
सम्पत्ति होती है। उनके पास अधिकार होते हैं। वे जमीन पर पैर पूनमचन्द ने कहा-बुआजी, दीक्षा किसी वस्तु की कमी के कारण
भी नहीं रखते। चलते समय उनके पैरों के नीचे पावड़े बिछा दिये नहीं ली जाती। जो किसी वस्तु की कमी के कारण दीक्षा लेता है
जाते हैं और खाने के लिए बढ़िया से बढ़िया मन के अनुकूल पदार्थ वह दीक्षा का आनन्द प्राप्त नहीं कर सकता। बुभुक्षु दीक्षा का
मिलते हैं। जीवन की प्रत्येक सुविधा उन्हें उपलब्ध है। अधिकारी नहीं, किन्तु सच्चा मुमुक्षु ही दीक्षा लेता है। आप चाहे मुनि पूनमचन्द जी ने यति को कहा-यतिवर, मेरे स्वयं के घर कितना भी प्रयास करें तथापि मैं संसार में न रहूँगा और दीक्षा में कौनसी कमी थी? यदि मुझे खाना-पीना और मौज-मजा ही ग्रहण कर जैन श्रमण बनूँगा। तथापि मोह के कारण बुआ ने उसे करना होता तो फिर साधु क्यों बनता? साधु बनकर इस प्रकार का कमरे में बन्द कर दिया और द्वार तथा खिड़कियों के ताले लगवा संकल्प करना ही मन की दुर्बलता है। मैं साधना के महापथ पर दिये। एक महीने तक वह कमरे में बन्द रहा। किन्तु एक दिन बुआ । वीर सेनानी की तरह निरन्तर आगे बढूँगा। शरीर भले ही मेरा एक खिडकी का ताला लगाना भल गयी थी। अतः उस खिडकी के कोमल हो, किन्तु मन मेरा दृढ़ है। मैं तो तुम्हें भी प्रेरणा देता हूँ कि रास्ते से बालक पूनम घर से बाहर निकल गया और लुकता-छिपता । भौतिकवाद की चकाचौंध में साधना से विस्मृत होकर आत्मवंचना जालोर पहुँच गया और अपनी बहन तुलसाजी को उन्होंने अपने / न करो। हृदय की बात कही। बहन तुलसा ने कहा-भाई, मैं तुम्हारी प्रतीक्षा यति के पास कोई उत्तर नहीं था। वह नीचा सिर किये हुए करती-करती परेशान हो गयी हूँ। पता नहीं तुम्हारी दीक्षा कब वहाँ से चल दिया। आपश्री ने प्रवचन कला में विशेष दक्षता प्राप्त होगी। आचार्यप्रवर अभी यहाँ आये हुए हैं। अतः मैं पिता को । की। आपश्री के प्रवचनों में आगम के गहन रहस्य सुगम रीति से
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