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इतिहास की अमर बेल
जुवारमलजी महाराज और बाघमलजी महाराज, जिनकी जन्मभूमि क्रमशः वागावास और पाटोदी थी। जुवारमलजी महाराज को थोकड़ों का बहुत ही अच्छा परिज्ञान था। आपको सैकड़ों थोकड़े कण्ठस्थ थे।
आचार्यश्री के सातवें शिष्य ताराचन्दजी महाराज थे, जिनका परिचय अगले पृष्ठों में दिया गया है। आपश्री के सुशिष्य उपाध्याय पुष्कर मुनिजी महाराज, पंडित हीरामुनिजी महाराज और तपस्वी भैरूलालजी महाराज- ये तीन शिष्य हैं। उपाध्यायश्री के देवेन्द्रमुनि, शांतिमुनि, गणेशमुनि, रमेशमुनि, दिनेशमुनि और नरेशमुनि शिष्य हैं और देवेन्द्रमुनि के राजेन्द्रमुनि तथा गणेशमुनि के जिनेन्द्रमुनि और प्रवीणमुनि शिष्य हैं। इनका परिचय वर्तमान युग के सन्त सती वृन्द के परिचय के अन्तर्गत दिया गया है। हीरामुनि के भगवतीमुनि शिष्य हैं।
पंडित प्रवर श्री पूनमचन्द जी महाराज महान प्रतिभासम्पन्न थे। विक्रम संवत् १९५० में माघ कृष्णा सप्तमी को जोधपुर में चतुर्विध संघ ने आपश्री की योग्य समझकर आचार्य पद प्रदान किया। आचार्यश्री ज्ञानमलजी महाराज का स्वर्गवास संवत् १९३० में हुआ था। उसके पश्चात् बीस वर्ष तक आचार्य पद रिक्त रहा, यद्यपि आपश्री आचार्य की तरह संघ का संचालन करते रहे। किन्तु पारस्परिक मतभेद की स्थिति के कारण एकमत से निर्णय नहीं हुआ था। इसका मूल कारण यह भी था कि आचार्यप्रवर ज्ञानमलजी महाराज ने अपना उत्तराधिकारी पूर्वघोषित नहीं किया था जिसके फलस्वरूप यह स्थिति उत्पन्न हुई थी। किन्तु आपश्री संघ का कुशल संचालन करते रहे जिससे प्रभावित होकर अन्त में संघ ने आपश्री को आचार्य चुना ।
वि. सं. १९५२ का चातुर्मास आचार्यप्रवर का अपनी जन्मभूमि गढ़ जालोर में था। प्रस्तुत वर्षावास में आचार्यश्री के तेजस्वी व्यक्तित्व और कृतित्व से प्रभावित होकर शताधिक व्यक्ति जैनधर्म के अभिमुख हुए। जैनधर्म और जैन संस्कृति में पण्डित-मरण का अत्यधिक महत्व है। प्रतिपल प्रतिक्षण साधक की यह प्रशस्त भावना
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रहती है कि वह दिन कब होगा जब मैं पंडित मरण को प्राप्त करूँगा। आचार्यप्रवर जागरूक थे। शरीर में कुछ व्याधि समुत्पन्न होने पर आचार्यश्री ने वीर सेनानी की तरह मुस्कराते हुए संलेखना सहित संथारा ग्रहण किया। ग्यारह दिन का संथारा आया और सं. १९५२ के भाद्रपद पूर्णिमा के दिन आपने समाधिपूर्वक स्वर्ग की राह ली।
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सहस्राधिक भावुक भक्तगण जय-जय के गगनभेदी नारों से चतुर्दिशाओं को मुखरित करते हुए शोभायात्रा की तैयारी करने लगे। जनता ने श्रद्धावश एक भव्य विमान का निर्माण किया था। उसमें आचार्यप्रवर का विमुक्त शरीर रखा गया था। सभी उसे लेकर श्मशान पहुँचे। शरीर का दाहसंस्कार करने के लिए चन्दन की चिता लगायी गयी। ज्योतिपुञ्ज का वह विमुक्त शरीर ज्योति से प्रज्वलित हो उठा। अगरु की सुगन्ध से वातावरण महक उठा। घी, कपूर और नारियलों का प्रज्वलन वातावरण को सुरभित कर रहा था। लोगों ने देखा आचार्यप्रवर का दिव्यदेह विमान सहित जल गया है किन्तु विमान पर जो तुर्रा था वह अग्निस्नान करने पर भी प्रह्लाद की तरह जला नहीं है। श्रद्धालु श्रावकगण वीर हनुमान की तरह उसे लेने के लिए लपके किन्तु वह इन्द्र-धनुष की तरह रंग-बिरंगे रंग परिवर्तन करता हुई पक्षी की तरह उड़कर अनन्त गगन में विलीन हो गया। अद्भुत आश्चर्य से सभी विस्मित थे।
वहाँ से सभी श्रावकगण स्नान के लिए जलकुंड पर पहुँचे। वहाँ का जल केशर की तरह रंगीन, गुलाबजल की तरह सुगन्धित और गंगाजल की तरह निर्मल व शीतल था जिसे देखकर सभी चकित हो गये और उनके हत्तन्त्री के सुकुमार तार झनझना उठे। आश्चर्य! महान् आश्चर्य !! धन्य है आचार्यश्री को जिन्होंने स्वर्ग में पधार करके भी नास्तिकों को आस्तिक बनाया। प्रस्तुत घटना प्रत्यक्षद्रष्टा श्रावकों के मुँह से मैंने सुनी वस्तुतः आचार्यप्रवर का जीवन महान् था। वे महान् प्रभावशाली आचार्य थे। उन्होंने अपने आचार्यकाल में हर दृष्टि से शासन का विकास करने का प्रयत्न किया।
मनुष्य तो अल्पज्ञ है किन्तु वह अल्प ज्ञान के अभिमान में भरा रहता है। यद्यपि वह पूर्ण ज्ञानी नहीं होता फिर भी अपने को सर्वज्ञ के समान समझने में गर्व करता है। पूर्ण सत्य न जानने पर भी चतुराई पूर्वक असत्य भाषण करता है, अपने को सर्वाधिक योग्य और चतुर समझता है और वैसा ही प्रदर्शित करता है।
- उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि
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