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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ उत्पन्न हो गयी और परिणामस्वरूप प्रतिक्रियावादी भावनाएँ उबुद्ध नगर का कोट बनवाया। कुतुबमीनार के सन्निकट जो आज हुईं। यह एक परखा हुआ ऐतिहासिक सत्य है कि मानव संस्कृति खण्डहरों का वैभव बिखरा पड़ा है उसे इतिहासकार द्वितीय का वास्तविक पल्लवन और संवर्धन संघर्ष की पृष्ठभूमि में ही होता अनंगपाल की राजधानी मानते हैं। उसके समय का शिलालेख भी है। शान्तिकाल में तो भौतिक समृद्धि और उसकी चकाचौंध पनप मिलता है जिसमें संवत् ११०९ अनंगपाल वही का उल्लेख है। सकती है किन्तु क्रान्ति और नवसृजन संघर्ष की पृष्ठभूमि पर ही कुतुबमीनार के सन्निकट अनंगपाल के द्वारा बनाया गया एक मन्दिर पनपते हैं। यही कारण है सन्त परम्परा का विकास विपरीत | है, उसके एक स्तम्भ पर अनंगपाल का नाम उत्कीर्ण किया हुआ परिस्थितियों में हुआ है। वह विशाल और उदात्त भावनाओं को है।५ श्री जयचन्द विद्यालंकार६ सन् १०५0 में अनंगपाल नामक लेकर पाशविकता से लड़ी और सुदृढ़ सौन्दर्यसम्पन्न परम्पराएँ डाली। एक तोमर सरदार द्वारा दिल्ली की स्थापना का उल्लेख करते हैं जिन पर मानवता सदा गर्व करती रही।
और श्री गौरीशंकर हीराचन्द ओझा का अभिमत है कि द्वितीय श्रमण संस्कृति की एक क्रान्तिकारी परम्परा स्थानकवासी
अनंगपाल ने दिल्ली बसाई। यह अनंगपाल तोमरवंशीय क्षत्रिय था। समाज के नाम से विश्रुत है जिसने साधना, भक्ति और उपासना के
संवत् १३८४ का एक शिलालेख जो दिल्ली म्यूजियम में है, उसमें क्षेत्र में विस्तार किया। यह एक अध्यात्मप्रधान सम्प्रदाय है। इसमें
तोमरवंशियों के द्वारा दिल्ली बसाने का उल्लेख मिलता है। इसके यम, नियम और संयम की प्रधानता है। मानव-जीवन के मूल्य व
। पूर्व दिल्ली का नाम इन्द्रप्रस्थ था। महत्व का इसमें सही-सही अंकन किया गया है। इस परम्परा का किसनदास ने अपनी कविता में दिल्ली नामकरण के सम्बन्ध में उद्देश्य मानव को भोग से योग की ओर, संग्रह से त्याग की ओर, । लिखा है कि जमीन में लोहे की एक कीली लगाई गई, किन्तु वह राग से विराग की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर, मृत्यु से ढीली हो जाने से उसका नाम ढिल्ली हुआ।९ फरिश्ता कहते है१० अमरता की ओर, असत्य से सत्य की और ले जाना है।
कि यहाँ मिट्टी इतनी मुलायम है कि इसमें मुश्किल से किल्ली मरुधर धरा के उद्धारक श्रद्धेय युग-प्रवर्तक पूज्यश्री अमरसिंह
मजबूत रह सकती है। अतः इसका नाम ढिल्लिका रखा गया। इसके जी महाराज इसी संस्कृति के सजग और सतेज सन्तरत्न थे। अपने
योगिनीपुर, दिल्ली, देहली आदि नामों के भी उल्लेख प्राप्त होते हैं। युग के परम विद्वान्, विचारक और तत्ववेत्ता थे। आपके अगाध _गणधर सार्धशतक११ उपदेशसार१२ खरतरगच्छ गुर्वावली१३ पाण्डित्य व विद्वत्ता की सुरभि दिग्-दिगन्त में फैल चुकी थी और विविध तीर्थकल्प१४, तीर्थमाला१५ प्रभृति अनेक ग्रन्थों में यह स्पष्ट आज भी वह मधुर सौरभ जन-जन के मानस को अनुप्रेरित व उल्लेख है कि दिल्ली प्रारम्भ से ही जैनियों का प्रमुख केन्द्र रही है। अनुप्राणित करती है। आपका ज्ञान निर्मल था, सिद्धान्त अटल था यहाँ पर अनेक श्रेष्ठी लोग जैनधर्म के अनुयायी थे, श्रमण संस्कृति और आप स्थानकवासी जैन परम्परा व श्रमण संस्कृति की एक के उपासक थे। विमल विभूति थे।
जन्म और विवाह दिल्ली : इतिहास के पृष्ठों पर
देहली के ओसवालवंशीय एवं तातेड़ गोत्रीय सेठ देवीसिंहजी पूज्यश्री अमरसिंह जी महाराज का जन्म भारत की राजधानी
अपने युग के प्रसिद्ध व्यापारी थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम दिल्ली में हुआ। दिल्ली की परिगणना भारत के महानगरों में की
कमलादेवी था। पति और पत्नी दोनों समान स्वभाव के थे, संतों की गयी है। यह वर्षों से भारत की राजधानी रही है। इस महानगरी का
संगति में विशेष अभिरुचि थी। जैन श्रमणों का जब कभी योग निर्माण किसने किस समय किया, इस सम्बन्ध में विज्ञों में एकमत
मिलता तो वे धर्मकथा श्रवण करने को पहुँचते थे, धर्मचर्चा में उन्हें नहीं है। दिल्ली राजावली, कवि किसनदास व कल्हण की एक
विशेष रस था। महत्वपूर्ण कृति है। इसके अभिमतानुसार दिल्ली की संस्थापना संवत् एक दिन कमलादेवी अपनी उच्च अट्टालिका में सानन्द सो रही ९०९ में हुई।१ पट्टावली समुच्चय में संवत् ७०३ में अनंगपाल थी। शीतल मन्द सुगन्ध समीर बह रहा था। प्रातःकाल होने वाला तुमर द्वारा बसाने का उल्लेख है।२ कनिंघम३ ने “दि ही था कि उसे एक स्वप्न आया कि आकाशमार्ग से एक अति आर्कियलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया' ग्रन्थ में सन् ७३६ में । सुन्दर अमर भवन नीचे उतर रहा है और वह उसके मुँह में प्रवेश अनंगपाल प्रथम के द्वारा दिल्ली बसाने का निर्देश किया है। पं. | कर रहा है। स्वप्न को देखकर कमलादेवी उठकर बैठ गयी और लक्ष्मीधर वाजपेयी का मन्तव्य है तोमर वंशीय अनंगपाल प्रथम उसने अपने पति देवीसिंहजी से स्वप्न की बात कही। देवीसिंहजी ने दिल्ली का मूल संस्थापक है। उसका राज्याभिषेक सन् ७३६ में । हर्षविभोर होकर कहा-सुभगे, तेरे भाग्यशाली पुत्र होगा। यथासमय हुआ और उसी ने सर्वप्रथम दिल्ली में राज्य किया। उसके पश्चात् । आश्विन शुक्ला चतुर्दशी रविवार संवत् १७१९ में रात्रि के समय उसके वंशज कन्नौज में चले गये और वे वहीं पर रहे। बहुत वर्षों शुभ मुहूर्त और शुभ बेला में पुत्र का जन्म हुआ। पुत्र का नाम के पश्चात् द्वितीय अनंगपाल दिल्ली में आया और उसने अपनी अमरसिंह रखा गया और वे इसी नाम से प्रसिद्ध हुए। शैशव-काल राजधानी दिल्ली बनाई। उसने नवीन नगर का निर्माण करवाया। में यह नाम माता-पिता को तृप्ति प्रदान करता था। श्रमण बनने पर
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